अपने किये तो कुछ होता नहीं, सब कर्म विपरीत हैं; पर हमारे नाथ हैं करुणावरुणालय, परम दयालु। ऐसा विश्वास बड़े महत्त्वका है-दशम माला
Nothing happens if we do it, all our deeds are against us; but our lord is full of compassion, most merciful. Such faith is of great importance.
SPRITUALITY


दशम माला
१-अपने किये तो कुछ होता नहीं, सब कर्म विपरीत हैं; पर हमारे नाथ हैं करुणावरुणालय, परम दयालु। वे अपनी दयालुतावश स्वयमेव द्रवित हो जायँगे और हमारा कल्याण होगा- ऐसा विश्वास बड़े महत्त्वका है। इसमें सबसे बड़ी बात है भगवान्की कृपापर विश्वास, जो सबसे मुख्य है।
२-सच्चे सकाम भक्त वे हैं, जो परम विश्वासके साथ एक बार भगवान्के सामने अपनी बात रखकर चुपचाप भगवान्का निर्भर भजन करते रहते हैं। वे कभी किसी दूसरेकी ओर ताकते नहीं। जबतक दूसरेकी ओर ताकना बना है, तबतक निर्भरता नहीं होती। एकमात्र भगवान्पर ही निर्भर हो जाय उनकी कृपापर, उनके बलपर विश्वास करके निश्चिन्त हो जाय। तभी कार्य सिद्ध होता है। हमारे जितने सन्देह हैं-भय, निराशा, शोक आदिके जितने भाव मनमें आते हैं- ये सब विश्वासकी कमीके ही परिणाम हैं। विश्वासमें कमी न हो तो ये चीजें मनमें कभी आ ही नहीं सकतीं। कहीं आती हैं तो क्षणमात्रमें ही नष्ट हो जाती हैं।
३-हमारा भला किस बातमें है तथा हम जो कर रहे हैं, उसका निश्चित फल क्या होना चाहिये- हम स्वयं इसका निर्णय करते हैं और फिर भगवान्से बताते हैं। उनसे कहते हैं- 'हमारा भला इस बातमें है और इसको आप यों कर दीजिये।' बस, भूल यही होती है। भगवान्पर विश्वास करनेवाला छोटे बच्चेकी भाँति भगवान्पर ही निर्भर होता है। वह स्वयं कोई प्रयत्न नहीं करता; वास्तवमें वह कोई दूसरा प्रयत्न जानता ही नहीं। अभाव प्रतीत हुआ, उसने उसे भगवान्के सामने रख दिया। अब उसकी पूर्ति कैसे, किस वस्तुसे, कब होगी, होगी या नहीं, होनी चाहिये या नहीं- यह वह नहीं सोचता। जैसे छोटा बच्चा जाड़ा लगनेपर रोता है, पर माँके सामने रोनेके सिवा और कुछ नहीं जानता, जैसे ही सकामी भक्त भगवान्पर निर्भर करता है। भगवान् सर्वज्ञ हैं, वे उसकी आवश्यकताको समझकर ऐसी व्यवस्था कर देते हैं, जिसमें उसका यथार्थ परम हित होता है।
४-स्नेहसे भरी हुई माता अपने बच्चेका लालन-पालन स्वयं अपने हाथों करती है, उसे किसी दूसरेपर विश्वास ही नहीं होता कि वह ठीक कर देगा। वास्तवमें उसे स्वयं सार-सँभाल किये बिना संतोष ही नहीं होता। इसी प्रकार भगवान् सच्चे भक्तके योगक्षेमको स्वयं वहन करते हैं, दूसरोंसे नहीं करवाते।
५-भगवान्का अनन्य चिन्तन, भगवान्की एकान्त उपासना और नित्य भगवान्में चित्तका लगा रहना- ये तीनों बातें होती हैं भगवान्की कृपामें विश्वास होनेपर ही।
६-विश्वास हो जानेपर ही काम होता है। हमारे हाथमें हीरा रखा है, पर हमारी बुद्धिमें समाया है कि यह काँच है। इस प्रकार हमारी श्रद्धा न होनेसे हाथका हीरा काँच बन जाता है, उससे हमें कोई लाभनहीं हो सकता। परन्तु जहाँ श्रद्धा है, वहाँ काँच भी हीरा दीखता है और दृढ़ श्रद्धा होनेसे काँच हीरा बन भी जाता है। प्रह्लादमें दृढ़ विश्वास हो तो था। उसे दृढ़ निश्चय था कि आगमें जो भगवान् हैं, वे ही मुझमें हैं; उसे काटनेके लिये जो साँप भेजे गये हैं, उनमें और उसके अन्तरमें रहनेवाले भगवान् दूसरे थोड़े ही हैं। बस, इसी विश्वासके प्रतापसे उसका बाल भी बाँका नहीं हुआ और इसी विश्वासके कारण खम्भेमेंसे भगवान् प्रकट हुए।
७-आस्तिकता भगवान्का हर जगह प्रत्यक्ष कराती है। प्रह्लादकी आस्तिकता ही थी, जो उसे विष, साँप, अग्नि, जल, पहाड़-सभीमें भगवान्के दर्शन कराती थी।
८- प्रेमके मार्गमें क्रियाका विरोध नहीं है, अपितु उसमें क्रिया और भी सुन्दर ढंगसे होती है। हमारी क्रियासे प्रेमास्पदको सुख पहुँचता है, इस भावसे तो क्रियामें और भी रस, माधुर्य, सौन्दर्य, उत्साह और भाव बढ़ जाता है।
९-भगवान्को छोड़कर दूसरेकी आशा करना, विश्वास करना, भरोसा करना पाप है, व्यभिचार है।
१०-केवल एक भगवान् ही ऐसे हैं, जो किसी व्यक्तिका पिछला इतिहास नहीं देखते, उसके वर्तमान आचरण नहीं देखते, वे देखते हैं केवल उसके विश्वासको और इस विश्वासको देखकर ही वे उस व्यक्तिके अभावकी अनुभूतिका ही अभाव कर देते हैं। मनुष्यको दुःख होता है अभावकी अनुभूतिसे। अभावकी अनुभूति मिट जानेपर उसका दुःख मिट जाता है।
११-अपने बलको मनुष्य जहाँ भगवान्के बलसे अलग मानता है, वहीं वह बल आसुरी हो जाता है।
१२-भगवान्के जो निर्भर भक्त हैं, वे केवल भगवान्की ओर ताकते हैं; उनमें न अपने बलका अभिमान है, न किसी औरका भरोसा। वे तो अपनी 'प्रीति, प्रतीति, सगाई' को सब जगहसे हटाकर भगवान्में लगा देते हैं।
१३-प्रेम कभी टूटता या घटता नहीं; वह तो प्रतिक्षण एक तार बढ़ता ही रहता है। प्रेम गुणरहित, अनुभवरूप और कामनारहित है। जो प्रेम गुणोंको देखकर होता है, वह तो गुणोंके न दीखनेपर लुप्त हो जाता है।
१४-प्रेममें प्रतिकूलता नहीं रहती। प्रेम प्रतिकूलताको खा जाता है। प्रेमास्पद यदि प्रेमीके प्रतिकूल कार्य करके सुखी होता है तो उसीमें प्रेमीको अनुकूलता दीखती है।
१५-प्रेमी खालीपन चाहता है। जब प्रेमी अपने हृदयको खाली कर देता है, तब प्रेम वहाँ बैठता है। खाली करनेका अर्थ है- त्याग। अर्थात् जितना-जितना त्याग बढ़ता है, उतना उतना ही प्रेम होता है। त्यागके आधारपर प्रेम रहता है।
१६-जब भगवान्में प्रेम बढ़ता है और विषयोंकी ओरसे घटता है तब समझ लो कि भगवत्कृपा हमपर बरस रही है। इसके विपरीत यदि विषयोंमें प्रेम बढ़ रहा है और भगवानकी ओरसे घट रहा है, तब समझ तो कि भगवान्की कृपासे हम वंचित हो रहे हैं और जहाँ विद्यमान ही प्रेम हो गया है और भगवान्की और मन ही नहीं जाता, तीनस्यों लो कि हम भगवत्कृपासे वंचित हो गये हैं।
१७-संसारकी स्थितिको अनुकूल बनाकर हम सुखी हो जायँ यह असम्भव है। भगवान् श्रीराम और श्रीकृष्णने स्वयं अपनी लीलाओंसे इस बातको दिखा दिया है कि जगत्का यही स्वरूप है। जगता भासे प्रतिकूलतामें ही अनुकूलताका अनुभव करना होगा, तभी सुख होगा और यह प्रतिकूलतामें अनुकूलताकी प्राप्ति कब होगी-जब हमारा भगवान्पर विश्वास होगा। जब हम प्रत्येक स्थितिमें मंगलमय भगवान्के मंगलविधानका प्रत्यक्ष करेंगे। जब जगत्में हमें भगवान् और भगवान्की लीला ही दिखायी देगी।
१८-भगवान् पराये नहीं हैं और न वे बहुत दूरपर स्थित हैं कि उन्हें देखना, पाना हमारे लिये दुर्लभ हो। जैसे अपने आत्माको हम चाहे जहाँ प्राप्त कर सकते हैं- प्राप्त क्या कर सकते हैं, वह तो नित्य हमारे अन्दर विराजित है, हमारा स्वरूप ही है-वैसे ही भगवान्को अपना मान लेनेपर भगवान् भी सर्वत्र सर्वदा हमारे निकट हैं। जैसे गोदके शिशुके लिये माँ अत्यन्त निकट है वैसे ही निर्भर भक्तके लिये भगवान् अत्यन्त निकट हैं।
१९-प्रार्थना दो कामोंको सिद्ध करती है- (१) भगवान् हमारे अत्यन्त निकट आ जाते हैं और (२) भगवान् नित्य हमारे पास रहने लगते हैं। इस समय हम भगवान्को नित्य अपने निकट नहीं देखते-इसका सीधा-सादा प्रमाण यह है कि हमें चिन्ता होती है, विषाद होता है, भय होता है, अशान्ति होती है। प्रार्थना हमें भगवान्की सन्निधिमें ले जाती है और नित्य वहीं रखती है।
२०-प्रार्थनाका अर्थ है-विश्वासपूर्वक भगवान्के साथ आत्मीयता स्थापित कर लेना। प्रार्थनाके लिये वाणीकी आवश्यकता नहीं है। चाहे श्लोक न आवे, भाषा ठीक न हो। भगवान्की प्रसन्नताके लिये विशेष भाषा, विशेष शब्दोंकी आवश्यकता नहीं; उसके लिये तो एक ही वस्तुकी आवश्यकता है- वह है विश्वाससे भरा श्रद्धापूर्ण हृदय। भारतीय भक्ति-शास्त्रोंमें इसीलिये सम्बन्ध-स्थापनकी बातपर जोर दिया गया है। भगवान्के साथ प्रगाढ़ आत्मीयता हो जानेपर भगवान् अपने हो जाते हैं। वास्तविक प्रार्थना वह है, जिसमें हम जगत्के नहीं रहते, भगवान्के हो जाते हैं। पतिव्रता एकमात्र पतिकी ही हो जाती है। पतिके बिना उसके लिये जगत्में और कोई वस्तु न आवश्यक है और न सुखकर।
२१-प्रार्थनामें निष्काम और सकामका जो झगड़ा है, वह आत्मीयता न होनेके कारण है। जहाँ आत्मीयताका प्रगाढ़ सम्बन्ध है, वहाँ सकाम और निष्काम दोनों ही भाव नहीं रहते। वहाँ तो रहती है प्रगाढ़ आत्मीयता, नितान्त अपनापन। यदि एक सूईकी भी आवश्यकता है तो प्रगाढ़ प्रेम और आत्मीयताके लिये। पतिव्रता कपड़ा सीकर पहनती है तो पतिके लिये और सीनेके लिये सूई माँगती है तो पतिसे ही। भगवान्से अमुक वस्तु न माँगो आदि कहना तो भगवान्के साथ प्रगाढ़ आत्मीयताका न होना सूचित करता है। निन्दा उस सकाम भावका है, जो इन्द्रिय-सुख भोगके लिये होता है। जहाँ इन्द्रिय-सुख-भोगकी भावना ही नहीं है, सब कुछ भगवत्प्रीतिके लिये है वहाँ सकाम-निष्काम कुछ नहीं रहता। भगवान्के साथ हमारा ऐसा सम्बन्ध स्थापित हो जाय, इसके लिये प्रार्थनाकी आवश्यकता होती है।
२२-बिना विश्वासके प्रार्थना नहीं होती और विश्वास होनेपर प्रार्थना न सुनी जाय, यह हो नहीं सकता। प्रार्थनाके न सुने जानेमें कारण है-विश्वासकी कमी। भगवान् भाषा नहीं देखते; भाषा चाहे कुछ भी हो, विश्वासके साथ भगवान्को पुकारनेपर उत्तर न मिले -यह सम्भव नहीं। उत्तर मिलता अवश्य है, हाँ, वह हमारे मनको अनुकूल लगे या प्रतिकूल - यह बात दूसरी है। एक नरकके कीड़ेका भी भगवान्के दरबारमें वही आदर है, जो एक बड़े-से-बड़े देवताका। उस दरबारमें इस बातकी आवश्यकता नहीं है कि कौन किस वर्णका, किस जातिका, किस देशका और किस आश्रमका है। वहाँ तो केवल विश्वास और प्रेम चाहिये।