सन्त को पकड़ लेने के बाद अश्रद्धा रहती ही नहीं।

Once one grasps a saint there remains no disbelief.

SPRITUALITY

आदरणीय परम पूज्य श्री हनुमानप्रसाद पोद्दार जी की लाभदायक पुस्तक 'सत्संग के बिखरे मोती '

2/1/20251 min read

४२-सन्तको पकड़ लेनेके बाद अश्रद्धा रहती ही नहीं। अतः जबतक अश्रद्धा बनी हुई है, वृत्ति भगवान्‌की ओरसे हटकर विषयोंकी ओर जाती है, तबतक यह समझना चाहिये कि हम सन्तके आसपास तो जाते हैं, पर अभी हमने उसके हाथमें लाठी पकड़वायी नहीं है, अपने-आपको उसके हाथमें सौंपा नहीं है।

४३-महात्मा भगवान्‌के स्वरूप हैं। यदि महात्मा एवं भगवान्के बीच प्राकृत जगत्का आवरण पड़ा हो तो वे महात्मा कैसे ? वे तो दोनों (महात्मा और भगवान्) घुल-मिलकर एक हो जाते हैं।

४४-महात्माका बिना जाने मिलन भी संसार-बन्धनसे मुक्त होनेमें कारण है- यह अत्युक्ति नहीं है, सचमुच महात्मासे मिलनेपर महात्माकी स्वाभाविक शक्तिसे हम हठात् परमार्थ-पथपर आरूढ़ हो जायेंगे।

४५-महात्माओंका महात्मापन स्वयं महात्माओंसे भी छिपा रह सकता है।

४६-महात्माओंका मिलन देर-सबेर भगवत्प्राप्ति करा देनेवाला है।

पर जो महात्माओंको जान लेते हैं, वे तो वैसे ही हो जाते हैं। जिसने महात्माको जान लिया, वह महात्माके अनुकूल हुए बिना नहीं रह सकता। यदि जीवनमें अनुकूलता-प्रतिकूलता हो तो वहाँ जाननेका आभास है, असलमें जाना नहीं है।

४७- महात्माके द्वारा होनेवाला प्रत्येक कर्म भगवत्प्रेरित होता है।

उसमें कोई दोष नहीं होता, द्वेष नहीं होता, पर कहीं-कहीं दोष मालूम होता है। वह इसलिये कि हमको महात्माकी आँखें नहीं मिली हैं।

४८-सन्त समतासम्पन्न होते हैं, दुःखराज्यसे बाहर होते हैं, पर दूसरेका दुःख देखकर उनका हृदय दुःखी होता है, वे द्रवित हो जाते हैं। वास्तवमें वे पर-दुःख-दुःखित हैं।

४९-सन्तके महत्त्वकी इयत्ता करना- यह तो असीमकी सीमा बाँधकर उसको छोटा करना है।

५०-सन्तोंका संग पावनको भी पावन करनेवाला है। जहाँ वे रहें, वह तीर्थ: जो कुछ कहें, वह शास्त्र । सन्तोंकी महिमा सन्त जानें या भगवान् जानें। भगवान् भी सन्तोंकी महिमा कहते-कहते सकुचा जाते हैं।

५१-सन्त वास्तवमें भगवान्के संदेशवाहक हैं; भगवद्भावोंका सहज ही आचरण करनेवाले और प्रचार करनेवाले हैं।

५२-जगत् सन्तसे शून्य कभी होता नहीं। सन्तके शरीरसे, मनसे जो कुछ भी परमाणु जगत्में फैलते हैं, उनसे जगत्‌का कल्याण अपने-आप होता रहता है।

५३-संतकी वाणीका सीधा संस्पर्श हो जाय-देख सकें, सुन सकें, पढ़ सकें, मनन कर सकें-तो कहना ही क्या; किन्तु यदि केवल सुन ही सकें तो उसका फल भी अमोघ है।

५४-सबसे बड़ा लाभ है भगवत्प्रेम। यह सचमुच संतकी कृपासे ही मिलता है। इस परम पुरुषार्थकी प्राप्ति और किसीसे नहीं हो सकती।

५५-संतकी रुचिका अनुसरण करना चाहिये, केवल आज्ञाका ही नहीं।

५६-संतके चरणोंका मन-ही-मन ध्यान करना। (चरणोंका

परिसेवन मनके आभ्यन्तरिक स्थलमें किया जाय तो इसमें न तो कोई हानि है और न यह प्रत्यक्ष चरणसेवनसे कुछ कम ही है।)

५७-संतसे मन-ही-मन प्रार्थना की जाय !

५८-यह भाव दृढ़ करे कि संत सदा मेरे साथ हैं और निरन्तर मेरी प्रत्येक क्रियाको देखते हैं और मुझे अपनाये हुए हैं।

५९-यह अनुभव करे कि संतकी कृपा मुझपर बरस रही है। उसकी

कृपासे मेरे अंदर दैवी भाव आ रहा है। इससे संतके हृदयका दैवी भाव अपने अंदर बड़ी शीघ्रतासे आता है।

६०-संतकी शरीर, वाणी और मन-तीनोंसे सेवा करे।

कायिक सेवाका स्वरूप

संतकी रुचिके अनुकूल अपने शरीरको अर्पण कर दे, संतको शरीरके सम्बन्धमें निःसंकोच कर दे। अपने शुद्ध व्यवहारसे संतके मनमें यह भाव जगा दे कि वह इस शरीरको चाहे जिस तरह बरते।

अपना काम चाहे वह न करावे, पर वह उसे किसी और काममें लगा दे। इस प्रकार करनेसे आगे चलकर व्यक्तिगत सेवा भी प्राप्त हो सकता है। शरीरसे सेवा करनेपर (स्वयं संतके) शरीरकी सेवा प्राप्त हो जाती है।

वाचिक सेवाका स्वरूप

अपनी वाणीको संतके अनुकूल बना दे। संतके हृदयमें यह विश्वास ज्या दे कि 'मेरी इच्छाके विरुद्ध इसकी वाणीसे कोई चीज निकलेगी ही नहीं।' इस अवस्थामें संत उसे अधिकार दे देता है कि मेरी ओरसे श्री प्रतिनिधिकी तरह, तुम चाहे जो करो, फिर जिस प्रकार संत अपनी वाणीसे कल्याण करता है, उसी प्रकार संतका प्रतिनिधि बनकर वह अपनी वाणीसे जगत्का कल्याण कर सकता है।

मानसिक सेवाका स्वरूप

अपने मनको संतके इतना अनुकूल कर दे कि संतको यह अनुभव हो कि इसका मन तो मेरे मनका प्रतिबिम्ब ही है।

६१-हम चाहे जहाँपर हों, किन्तु यदि सच्चे हृदयसे यह भावना करें कि संत हमारे साथ हैं, हमें बुरे कर्मोंसे बचाते हैं, तो चाहे स्वयं संतको इस बातका पता न चले, परन्तु वह परोक्ष-रूपसे (प्रत्यक्षकी भाँति ही) हमारे पास पहुँचता है, हमें सहायता पहुँचाता है, सलाह देता है और बुरे कर्मसे बचाता है।

६२-संतोंके पास रहते हुए भी हमारी उन्नतिमें रुकावट क्यों आती है?-हम हमारी बुद्धि, हमारी चेष्टा, हमारा विचार लादना चाहते हैं उस (संत) के विचारपर, उसके संकेतपर।

६३-हमने एकान्तमें बैठकर कोई बात संतसे कही, संतको इस बातका बिलकुल ज्ञान नहीं है, परंतु भगवत्प्रेरणासे इस बातका उत्तर उसके हृदयमें आ गया। इसे वह या तो हमें कह देगा या लिखकर भेज देगा या हमारे मनमें कह देगा (जैसे हमने दूर बैठकर यह भाव किया कि हम भगवान्की मूर्तिका ध्यान करें ? संत के मनमें यह बात आयेगी कि उसको यह बात बतानी चाहिये कि 'वह किस मूर्तिका ध्यान करे। इसे या तो वह कह देगा या लिख देगा या हमारे मनमें यह भाव स्वतः ही आ जायगा कि अमुककी उपासना करनी चाहिये।' यही नियम अन्य बातोंपर लागू होता है)। हमारे मनमें उसका उत्तर अपने-आप ही आ जायगा, मानो कोई अंदर-ही-अंदर प्रेरणा कर रहा हो। यह क्रिया अपने-आप होती है; क्योंकि संतका सारा सम्बन्ध भगवान्से होता है। जहाँ हमारे मनमें भगवद्भावके अतिरिक्त और कोई लाग-लपेट नहीं होती, वहाँ सब भार भगवान् सँभालते हैं। वे दोनोंके हृदयमें रहकर सब काम कर देते हैं। बेतारके तारकी भाँति तुरन्त संतके हृदयमें हमारी बात पैदा होती है। उधर भगवान्के साथ भी उसका इस प्रकारका बेतारका तार चलता रहता है। अतएव उत्तर भी इतना यथार्थ होता है कि हम चकित रह जाते हैं।

६४-प्रत्येक व्यक्तिमें दो प्रकारकी विद्युत्-शक्ति होती है-एक खींचनेवाली और एक फेंकनेवाली। जिसमें जो चीज होती है, उससे वही चीज बाहर आती है। संतमें है केवल भगवद्भाव। अतः उसके शरीरसे निरन्तर भगवद्भावके परमाणु ही निकलते रहते हैं।

हाथोंकी अंगुलियोंके पोरवों और चरणोंके पोरवोंसे विद्युत्के परमाणु विशेष मात्रामें बाहर निकलते हैं तथा पैरके अँगूठेसे तो वे सबसे अधिक निकलते हैं। इसीसे भगवान्‌के चरणनखकी ज्योतिकी पूजाका विधान बहुत मिलता है। सहस्रार और हृदय - ये दो चुम्बकके स्थान माने गये हैं। इन दोनों जगह बाहरके परमाणु विशेषरूपसे खींचे जाते हैं। भक्त लोग प्रार्थना किया करते हैं कि भगवन् ! अपने चरण हमारे मस्तकपर रख दो, हमारे हृदयपर रख दो। लक्ष्मणजी भगवान् रामके चरणोंको अपने हृदयपर धारण करके सोते थे। इतना ही नहीं, चरणके द्वारा जिस धूलिका संस्पर्श होता है, उसके शरीरमें विद्युत्‌के परमाणुओंका समावेश हो जाता है। अतः जहाँ-जहाँ संतोंके चरण टिकते हैं, वहाँ वहाँ उसमें उनके शरीरके रहनेवाले विद्युत्के (जो भगवद्भावमय हैं) परमाणुओंका समावेश हो जाता है और वहाँकी भूमि पवित्र हो जाती है। संतोंकी चरणरजके विद्युत् परमाणु भक्तके हृदयके विद्युत्-परमाणुओंसे मिलकर एक ऐसा प्रकाश उत्पन्न करते हैं, जिससे वहाँ भगवान्का स्पष्ट साक्षात्कार हो जाता है।