सप्तम माला - तीर्थ इसीलिये पतितपावन हैं कि उनमें भगवान् के प्यारे संतोंने निवास किया है
Pilgrimage sites are purifiers of sins because God's beloved saints have resided in them
SPRITUALITY


सप्तम माला
१-वेद-शास्त्र इसीलिये जगत्का कल्याण करते हैं कि उनमें भगवान्के गुण, महत्त्व, तत्त्व, रहस्य, स्वरूप, लीला, धाम और नाम आदिका विशद विवेचन है।
२-तीर्थ इसीलिये पतितपावन हैं कि उनमें भगवान्के प्यारे संतोंने निवास किया है।
३-भगवान्का नाम ऐसा अमृत है, जो किसी प्रकारके भाव- कुभाव-अभावसे जीभके साथ छुए जानेपर मनुष्यका बलात् कल्याण कर देता है।
४-सच्चा वीर वही है, जो संसार-समरमें जूझकर प्रकृतिपर विजय पाता है और भगवान्के अमल अकल अनन्त आनन्दसाम्राज्यको प्राप्त करता है।
५-भाग्यवान् वही हैं, जिनका भगवच्चरणोंमें अनन्य अनुराग है।
६-जिस क्रियासे, अध्ययनसे, स्थानसे, संगसे, भगवान्के भजनमें बाधा होती है, वे सब अनर्थ हैं। इन अनर्थोंकी निवृत्ति होती है भजनसे । अनर्थके मिट जानेसे निष्ठा प्राप्त होती है अर्थात् भगवान्से मन हटता ही नहीं। निष्ठासे रुचि, रुचिसे प्रेम और प्रेमसे आसक्ति उत्पन्न होती है। आसक्ति उत्पन्न होनेके बाद फिर कुछ करना नहीं पड़ता, स्वतः भजन होता है। जब कामना-वासना नष्ट हो जाती है, तब भाव उत्पन्न होता है। भावके प्रकाशमें साधनाके सब विघ्न मिट जाते हैं। xxxx परम भाग्यवान् किसी व्यक्तिको श्रीकृष्णके किसी भक्तकी अथवा श्रीकृष्णकी कृपा प्राप्त होनेपर यह भाव श्रवण-कीर्तन आदि साधन बिना ही प्राप्त हो जाता है। ऐसा कहीं-कहीं ही होता है। इसमें साधना नहीं करनी पडती, हठात् तरंग आती है, मन नाच उठता है औ कामना-वासनाका नाश हो जाता है।
७- लोगोंके देखनेमें वृन्दावनधाम आठ कोस लम्बा तथा चार को चौड़ा है, पर भगवान्का धाम अचिन्त्य चिन्मय-स्वरूप है। उसके एक-एक धूलिकणमें अनन्तकोटि ब्रह्माण्डका समावेश हो सकता है और है।
२८० भगवान्के परम भक्तके सिवा विषयासक्तिका गुप्त अंकुर सब रहता है। ऊपरसे तमाम घास जल जानेपर भी कहीं-न-कहीं जमीनध अंदर कोई अंकुर रह ही जाता है। पर जो भगवान्के भक्त हो जाते हैं, उनमें कहीं भी विषयोंका अंकुर नहीं रहता; क्योंकि उनका जिम्म भगवान् ले लेते हैं। एक तो तैरकर जायें, एकको भगवान् हाण पकड़कर ले जायें। इन पिछले भक्तोंको किसी प्रकारका डर नहीं। इस आदिके रहनेपर तो शायद मनुष्य गिर जाय, पर जो भगवान्के भरु हैं, वे नहीं गिर सकते; क्योंकि उनको जीवनके आरम्भसे हो भगवच्चरणोंका आश्रय रहता है। वे सब बाधा-विघ्नोंके मस्तकपण चरण रखकर चलते हैं; उनकी रक्षा भगवान् करते हैं। योगी चाहे भ्रए हो जाय, चाहे ज्ञानी पार न हो, पर भगवान्के वास्तविक चरणाश्रि भक्तको भगवान् अपने चरणोंसे, अपनी कृपा-डोरीसे बाँधे रखते हैं, व कभी गिरता ही नहीं। वही वास्तवमें परम अभय है। वहाँ पतनक आशंकाके लेशकी भी गन्ध नहीं। वह श्रीकृष्णकी कृपासे सदाके लि मुक्त हो जाता है।
९-जो श्रीकृष्णके अनुगत हो, वह जड पदार्थ भी परम पूजनी है; पर जो श्रीकृष्णके अनुगत न हो, वह देवता भी सर्वथा अपूजनीय है।
१०. भगवान्की प्रकट लीलामें जितने भी लीलासहचर वात्सल मधुर एवं सख्यभाव रखनेवाले हैं, वे सब के सब भगवानके ही स्वरूप हैं; क्योंकि वे सभी भगवान्के पार्षद हैं। उनके द्वारा जो भी चेष्टा होती हैं, स्फुरणा होती है, वे जो कुछ भी करते हैं, करनेकी चेष्टा करते हैं; सब भगवान्की इच्छा-शक्तिसे समन्वित लीलाशक्तिके द्वारा होता है तथा वह सब भगवान्की लीलाका उपकरण है।
११-भगवान्की बाललीलाएँ ठीक प्राकृत बालकोंकी भाँति होती हैं। उनमें अप्राकृत भाव देखनेको नहीं मिलता। अप्राकृतका यह विचित्र प्राकृतानुकरण देखनेमें बड़ा मनोहर होता है। ×××× जिनके संकल्पसे अनन्तकोटि ब्रह्माण्डोंका संचालन होता है, उनकी प्राकृतलीलाको देखकर यह भ्रम होना स्वाभाविक ही है कि ये सर्वेश हैं कि नहीं। xxxx यदि कोई उनके चरणोंकी शरण लेकर माधुर्य ग्रहण करना चाहे तो उसे ज्ञात होगा कि अप्राकृतकी यह प्राकृतलीला कितनी मधुर है।
भगवान्की भक्तवत्सलता एवं प्रेमाधीनताका यहीं पता लगता है।
अखिल ब्रह्माण्डपालक होकर भी वे अपने असीम ऐश्वर्यका जरा-सा भी प्रकाश नहीं करते। बच्चोंके साथ ठीक बच्चे होकर खेलते हैं। पर ऐसा नहीं मानना चाहिये कि वे कोई दम्भ करते हैं; वे सचमुच ही खेलते हैं, सचमुच ही उन्हें इसमें आनन्द मिलता है। आनन्दको आनन्द देना, आनन्दमयमें आनन्दकी कामना - स्पृहा उत्पन्न करना, यह भक्तोंका ही काम है। आनन्दका रस लेनेके लिये ही भगवान् वात्सल्य, सख्य आदि भक्तोंके अनुरूप लीला करते हैं। अप्राकृतकी लीला अप्राकृत है। पर देखनेमें प्राकृत-सी लगती है। भक्तोंको सुख हो, भगवान् उसी प्रकारकी लीलाएँ करते हैं। भक्तोंके सुखमें उन्हें सुख होता है। उनकी श्रीकृष्ण आदि अवतारोंकी लीलाएँ नहीं हैं; वे तो नित्य होती हैं और नित्य होती रहेंगी। यह नहीं कि पहले नहीं थीं, अब प्रकट हुई हैं। भगवान् जिस प्रकार नित्य हैं, उसी प्रकार उनकी लीलाएँ भी नित्य हैं। इनमें मायिक जगत्का काम नहीं। जो भक्त इनमें आनन्द लेते हैं, वास्तविक रूपमें वे ही भाग्यवान् हैं।
१२-श्रीकृष्ण जिनके नहीं, उन्हींको डर है। जिनके श्रीकृष्ण हैं, जिनके पीछे पीछे श्रीकृष्ण चलते हैं, जिन्होंने अपनी सारी सं श्रीकृष्णको सौंप दी है, उनको क्या डर है, वे तो सदा अभय वि हैं; जो श्रीकृष्णके अनुयायी हैं, जिनके रक्षक श्रीकृष्ण हैं, विनो परवा नहीं करते: वे विघ्नोंकी ओर बढते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि विघ्नोंका विघ्नत्व मिट जाता है। उनके संयोगसे विघ्नोंक विघ्नपना तो मिट ही जाता है, साथ ही भगवान् भी उन्हें अपना मे
हैं-स्वीकार कर लेते हैं।
१३-समुद्रमें बाढ़ आ जाय और उसमें तटके बड़े-बड़े शिखरोगान पहाड़ छिप जाय तो इसका अभिप्राय यह नहीं होता कि वहाँ पहाड़ नहीं हैं; किंतु वे बढ़े हुए सिन्धुगर्भमें कुछ देरके लिये अदृश्य हो गये हैं। इसी प्रकार जब गोपबालकोंके प्रेम-समुद्रके तटपर अनन्त-शकि सम्पन्न श्रीकृष्ण लीला करते हैं, तब उनकी तरंगोंमें भगवान्की अनन्न शक्ति छिपी हुई रहती है, पर जब किसी भक्तपर अनुग्रह करनेको आवश्यकता होती है, तब वह तत्काल प्रकट हो जाती है।
१४-लीला एवं कृपाशक्ति भगवान्की समस्त शक्तियोंमें प्रधान है।
कोई भी शक्ति इन दोनों शक्तियोंके विरोधमें आत्मप्रकाश नहीं करती। सारी शक्तियाँ इन दोनों शक्तियोंके प्रकाशके लिये ही कार्य करती हैं।
१५- भगवान् दम्भ नहीं करते। भगवान्की जितनी भी प्रेमलीलाएँ होती हैं, उनमें भगवान् जानते हुए भी अनजानकी भाँति काम करते हों, यह बात नहीं है। उनकी प्रत्येक लीला सच्ची है। लीलाशक्तिको इच्छासे वहाँ सर्वज्ञताशक्ति भी छिपी रहती है।
१६-काँचके आवरणमें ढके हुए दीपककी लौमें सारे नगरोंको फूंकनेकी शक्ति है, पर बिना प्रयोजन हुए तथा संयोग हुए उसकी वह शक्ति प्रकट नहीं होती। इसी प्रकार गोपबालकोंके प्रेमके आवरणमें ढके हुए श्रीकृष्णमें सर्वज्ञता, ऐश्वर्य, अन्तर्यामित्व आदि असंख्य शक्तियों वर्तमान हैं, पर प्रयोजनाभावसे उन शक्तियोंका प्रकाश नहीं होता।