पूजा

Prayer

SPRITUALITY

आध्यात्मिक कहानियाँ, geeta press गोरखपुर

4/19/20251 min read

पूजा

'सब प्रजाजन उपस्थित हो गये ?'

'श्रीमान्‌की आज्ञा तथा जगत्पतिके दर्शनके सौभाग्यको कौन अतिक्रमण कर सकता है महाराज किंतु।'

'किंतु किंतु परंतु क्या मन्त्रीप्रवर? यह किंतु क्या ?' आनर्त महाराज कुछ चञ्चल एवं उद्विग्न हो उठे। 'क्या मेरे किसी पूर्वपाप अथवा दुर्भाग्यसे भगवान् इधरसे नहीं पधारेंगे? उन्होंने मार्ग बदल दिया है? आह! मैं इतना अधम हूँ कि उनके श्रीचरणोंमें दो पुष्प भी नहीं चढ़ा पाऊँगा !'

'आप व्यर्थ आकुल होते हैं। भगवान् इधरसे ही पधार रहे हैं।' हाथ जोड़कर वृद्ध मन्त्रीने कहा। 'दूतोंने समाचार दिया है कि प्रभुकी मध्याह्नसन्ध्या अपनी ही सीमामें होगी।'

'तब किंतु क्या?' आश्वस्त होकर महाराजने पूछा।

'महाराज! मेरा कुछ और ही अर्थ था। वह सोमपीड़ बढ़ई।'

'ओह, वह श्रद्धामय वृद्ध।' महाराजने मन्त्रीको बीचमें ही रोका।

'वह सबसे प्रथम प्रभुके श्रीचरणोंमें अपना उपहार रखना चाहता है। उसे ऐसा कर लेने दो! उन चरणोंमें राजा और भिक्षुकका भेद नहीं। वहाँ केवल प्रेम ही पुरस्कृत होता है और हमें यह स्वीकार कर ही लेना चाहिये कि वह वृद्ध इस मार्गमें हम सबका नरेश है। उसे सम्मानपूर्वक सबसे पहले पूजन करने दो।'

'पर वह आये भी तो श्रीमान्।' मन्त्रीने नम्रतासे कहा।

'वह नहीं आया?' महाराज जैसे आकाशसे गिरे।

'जी! वह नहीं आया और आना चाहता भी नहीं।' मन्त्रीने बहुत

नम्रतासे उत्तर दिया। 'मेरे विश्वस्त जनोंने मुझे सूचित किया है।'

'ऐसा हो नहीं सकता।' महाराजके स्वरमें विचित्र आश्चर्य था।

'मन्त्रीवर ! तुम जानते हो उस वृद्धको ! भगवान्‌के हस्तिनापुर जानेका समाचार पाकर ही वह प्रेमोन्मत्त हो गया था। उसी दिनसे उसने मार्गके तोरणद्वार बनाने प्रारम्भ कर दिये थे। कल मध्यरात्रितक वह सिंहासन सजानेमें लगा था। मेरा तो पूर्ण विश्वास है कि उसीके प्रेमके कारण प्रभुने इधरसे द्वारिका जाना निश्चित किया है।'

'श्रीमान् उचित ही कहते हैं।' मन्त्रीने कहा। 'उसने कुछ भी पारिश्रमिक हमलोगोंके बार-बार आग्रह करनेपर भी ग्रहण नहीं किया है। साथ ही वह इतना श्रम न करता तो यह तोरणद्वार इतना सुन्दर बन भी न पाता।'

'तब वह प्रभुके ठीक आगमनके समय उपस्थित न हो, यह कैसे हो सकता है?' महाराजका गला भर आया था। 'तुम स्वयं जाकर ले आओ उसे।'

'जो आज्ञा।' राजकीय रथ लेकर प्रधान मंत्री उस बढ़ईको लेने चल पड़े।

(२)

एक फूसकी झोपड़ी है। फूसकी दीवार और फूसके छप्पर। गोबरसे लिपी-पुती स्वच्छ । एक कोनेमें बढ़ईके औजार समेटकर रखे हैं। एक ओर पुआल पड़ा है और एक केलेके पत्तेपर पुष्पोंकी वनमाला, चावल, चन्दन सजा रखा है। ताँबेके लोटेमें सम्भवतः जल होगा।

पूजाका सब उपहार तो सजा है; पर पुजारी सावधान हो तब न? मन्त्रीने रथ उसी झोपड़ीके द्वारपर रोक दिया। उन्होंने देखा-बूढ़ा हाथमें तुलसीकी माला लिये सामनेके तुलसी-चबूतरेपर लगी श्रीतुलसीको ध्यानसे देख रहा है। हाथमें माला स्थिर पड़ी है और नेत्रोंसे अविरल अश्रुप्रवाह चल रहा है।

'आपको महाराज स्मरण कर रहे हैं।' मन्त्रीके वचनोंसे उसकी तन्मयता भंग हुई। सकपकाकर उसने दोनों हाथ जोड़ लिये और इस प्रकार मन्त्रीके मुखकी ओर देखने लगा मानो कुछ सुना ही नहीं।

'श्रीद्वारिकाधीशके दर्शनोंके लिये आपको ले चलने मैं रथ लेकर आया हूँ। प्रभु पहुँचनेहीवाले हैं।' मन्त्रीने आग्रह किया।

'आपने व्यर्थ कष्ट किया।' वृद्धकी अञ्जलि बंधी थी और उसके स्वरमें अत्यधिक नम्रता थी। 'हम इस प्रकार महाराजाओंकी

भाँति प्रभुके दर्शन नहीं करते।' 'तब किस प्रकार आप दर्शन करेंगे?' मन्त्री आश्चर्यचकित

था।

'जब वे मेरे द्वारपर आवेंगे।' वृद्धने सरलतासे कहा। इस बूढ़ेके गर्वपर मन्त्री हँसीको रोक न सके। 'जो राजसूयमें प्रथम पूज्य माने गये। जो महाराजके आग्रहपर भी राजसदनमें आनेकी प्रार्थनाको अस्वीकृत कर चुके हैं। जिनके दर्शनके निमित्त स्वयं महाराज सीमातक दौड़े गये हैं। वे इस झोपड़ीके द्वारपर आवेंगे ?'

मन्त्रीको इस गर्वसे अरुचि हुई। उन्होंने पीठ फेर ली। पता नहीं उन्होंने सुना भी या नहीं। वृद्धने कहा- 'दीनोंके द्वारपर दीनबन्धुको छोड़कर और कौन आयेगा ?'

रथ जैसे आया था, वैसे ही लौट गया।

गरुड़ध्वज दृष्टि पड़ा। कोलाहल मच गया। सब लोग दौड़े। स्वयं महाराज पैदल पूजाका थाल लिये आगे-आगे बालकोंकी भाँति दौड़ रहे थे। 'यह क्या ? रथ तो दूसरी ओर मुड़ पड़ा ! भगवान् उधर कहाँ

श्रीतुलसीको ध्यानसे देख रहा है। हाथमें माला स्थिर पड़ी है और नेत्रोंसे अविरल अश्रुप्रवाह चल रहा है।

'आपको महाराज स्मरण कर रहे हैं।' मन्त्रीके वचनोंसे उसकी तन्मयता भंग हुई। सकपकाकर उसने दोनों हाथ जोड़ लिये और इस प्रकार मन्त्रीके मुखकी ओर देखने लगा मानो कुछ सुना ही नहीं।

'श्रीद्वारिकाधीशके दर्शनोंके लिये आपको ले चलने मैं रथ लेकर आया हूँ। प्रभु पहुँचनेहीवाले हैं।' मन्त्रीने आग्रह किया।

'आपने व्यर्थ कष्ट किया।' वृद्धकी अञ्जलि बंधी थी और उसके स्वरमें अत्यधिक नम्रता थी। 'हम इस प्रकार महाराजाओंकी

भाँति प्रभुके दर्शन नहीं करते।' 'तब किस प्रकार आप दर्शन करेंगे?' मन्त्री आश्चर्यचकित

था।

'जब वे मेरे द्वारपर आवेंगे।' वृद्धने सरलतासे कहा। इस बूढ़ेके गर्वपर मन्त्री हँसीको रोक न सके। 'जो राजसूयमें प्रथम पूज्य माने गये। जो महाराजके आग्रहपर भी राजसदनमें आनेकी प्रार्थनाको अस्वीकृत कर चुके हैं। जिनके दर्शनके निमित्त स्वयं महाराज सीमातक दौड़े गये हैं। वे इस झोपड़ीके द्वारपर आवेंगे ?'

मन्त्रीको इस गर्वसे अरुचि हुई। उन्होंने पीठ फेर ली। पता नहीं उन्होंने सुना भी या नहीं। वृद्धने कहा- 'दीनोंके द्वारपर दीनबन्धुको छोड़कर और कौन आयेगा ?'

रथ जैसे आया था, वैसे ही लौट गया।

गरुड़ध्वज दृष्टि पड़ा। कोलाहल मच गया। सब लोग दौड़े। स्वयं महाराज पैदल पूजाका थाल लिये आगे-आगे बालकोंकी भाँति दौड़ रहे थे। 'यह क्या ? रथ तो दूसरी ओर मुड़ पड़ा ! भगवान् उधर कहाँ जा रहे हैं?' लोग आश्वर्यपूर्वक उधरही चलने लगे।

'रोको दारुक!' प्रभुने सारधिको आज्ञा दी और वह चारों कर्पूरगौर अश्व वहीं स्थिर हो गये।

वृद्ध बढ़ई कुछ समझ सके, तबतक तो रथमेंसे कूदकर मयूरमुकुटधारी एक नीलोज्ज्वल ज्योति उसके सम्मुख खड़ी हो गयी। एक बार मुख ऊपर उठाकर देखा। खड़े होनेका भी तो अवकाश नहीं मिला था। वैसे ही मस्तक उन कमलाकरकालित चरणोंपर लुढ़क गया !

महाराज, मन्त्री, सामन्त, सेनापति प्रभृति सभी धीरे-धीरे पहुँच गये। सब आश्चर्यसे एवं संकोचसे प्रभुके रथके पास ही खड़े थे। दीनबन्धु दीनके द्वारपर खड़े थे और दीन उनके श्रीचरणोंपर पड़ा था। पूजाकी सामग्री केलेके पत्तेपर धरी ही रही। उसे छूनेका अवकाश एवं स्मृति किसे ?

बहुत देर हो गयी। न तो प्रभु हिले और न वृद्ध। बड़े संकोचसे हाथ जोड़कर दारुकने कहा, 'महाभाग ! प्रभु कबसे खड़े हैं। पूजा तो कर लो!'

'दारुक ! पूजा तो हो गयी।' उन कमलनेत्रोंसे दो विन्दु उस वृद्धके मस्तकपर पड़े ! जीव-ब्रह्मकी एकतासे बड़ी पूजा क्या है? वह पूजा तो सचमुच ही हो गयी थी। श्रीचरणोंपर वृद्धका शरीर ही पड़ा था। वह तो श्यामसुन्दरसे एक हो चुका था !

____________________