प्रश्न- आज अन्न इतना महँगा क्यों हो गया है?

Question- Why has food become so expensive today?

महापाप से बचो AVOD THE BIGOTRY

गीता प्रेस से प्रकाशित पुस्तक ''गृहस्थ में कैसे रहें ?'' से यह लेख पेश. पुस्तक के लेखक स्वामी रामसुखदास जी हैं.

9/1/20241 min read

प्रश्न- आज अन्न इतना महँगा क्यों हो गया है?

उत्तर-विचारपूर्वक देखें कि जबसे परिवार नियोजन होता गया, तबसे अन्न भी महँगा होता गया, कम पैदा होता गया। जब मनुष्योंकी संख्या कम होगी तो फिर अन्न अधिक क्यों पैदा होगा? तात्पर्य है कि परिवार नियोजनकी प्रथा चलनेसे ही यह दशा हुई है।

आज 'मांस खाओ, मछली खाओ, अण्डा खाओ'- ऐसा प्रचार किया जाता है, तो फिर वर्षा और खेती क्यों हो? कारण कि मांस खानेसे पशु नहीं रहेंगे तो उनके लिये घासकी जरूरत नहीं और मनुष्य मांस खायेंगे तो उनके लिये अन्नकी जरूरत नहीं, फिर निरर्थक घास और अन्न पैदा क्यों हों!

जब मनुष्य अधिक हों और वस्तुएँ कम हों, तब महँगाई होती है। वस्तुएँ तभी कम होती हैं, जब मनुष्य काम न करें, आलस्य- प्रमाद करें। आज भी यही दशा है। लोग काम तो कम करते और खर्चा ज्यादा करते हैं, इसीलिये इतनी महँगाई हो रही है। काम कम करनेसे वस्तुएँ कम पैदा होंगी ही। अतः महँगाईका कारण जनसंख्याका अधिक होना नहीं है, प्रत्युत मनुष्योंमें अकर्मण्यता, आलस्य, प्रमाद आदि दोषोंका बढ़ना ही है। सरकारकी अव्यवस्था भी इसमें कारण है।

यह लेख गीता प्रेस की मशहूर पुस्तक "गृहस्थ कैसे रहे ?" से लिया गया है. पुस्तक में विचार स्वामी रामसुखदास जी के है. एक गृहस्थ के लिए यह पुस्तक बहुत मददगार है, गीता प्रेस की वेबसाइट से यह पुस्तक ली जा सकती है. अमेजन और फ्लिप्कार्ट ऑनलाइन साईट पर भी चेक कर सकते है.

स्वामी रामसुखदास जी का जन्म वि.सं.१९६० (ई.स.१९०४) में राजस्थानके नागौर जिलेके छोटेसे गाँवमें हुआ था और उनकी माताजीने ४ वर्षकी अवस्थामें ही उनको सन्तोंकी शरणमें दे दिया था, आपने सदा परिव्राजक रूपमें सदा गाँव-गाँव, शहरोंमें भ्रमण करते हुए गीताजीका ज्ञान जन-जन तक पहुँचाया और साधु-समाजके लिए एक आदर्श स्थापित किया कि साधु-जीवन कैसे त्यागमय, अपरिग्रही, अनिकेत और जल-कमलवत् होना चाहिए और सदा एक-एक क्षणका सदुपयोग करके लोगोंको अपनेमें न लगाकर सदा भगवान्‌में लगाकर; कोई आश्रम, शिष्य न बनाकर और सदा अमानी रहकर, दूसरोकों मान देकर; द्रव्य-संग्रह, व्यक्तिपूजासे सदा कोसों दूर रहकर अपने चित्रकी कोई पूजा न करवाकर लोग भगवान्‌में लगें ऐसा आदर्श स्थापित कर गंगातट, स्वर्गाश्रम, हृषिकेशमें आषाढ़ कृष्ण द्वादशी वि.सं.२०६२ (दि. ३.७.२००५) ब्राह्ममुहूर्तमें भगवद्-धाम पधारें । सन्त कभी अपनेको शरीर मानते ही नहीं, शरीर सदा मृत्युमें रहता है और मैं सदा अमरत्वमें रहता हूँ‒यह उनका अनुभव होता है । वे सदा अपने कल्याणकारी प्रवचन द्वारा सदा हमारे साथ हैं । सन्तोंका जीवन उनके विचार ही होते हैं ।