भजन की गोपनीयता, सत्संग के बिखरे मोती पुस्तक समाप्त
Secrecy of the Psalms
SPRITUALITY


भजन की गोपनीयता
९५-इस प्रकार हृदयको भगवन्मय बना दे, उसे भगवान्से इतना भर दे कि फिर दूसरेके लिये स्थान रहे ही नहीं। स्थान रहे भी तो ऐसे ही भावोंका, जो भक्तके साथ रहनेयोग्य हैं; जैसे- वैराग्य, दया, प्रेम आदि। विकार और भक्ति दोनों एक साथ रहेंगे ही कैसे? जिस मन्दिरमें भगवान्की भक्तिकी प्रतिष्ठा हो चुकी, उसमें कूड़े-कर्कट कैसे रहें? उसमें तो धूप-दीप, अगर, कपूर, चन्दन और सुगन्धित पुष्प ही रहेंगे।
९६-भक्तिसे हृदयको भरते जाना चाहिये-हृदय तो भक्तिका मन्दिर है ही। अपनी भक्तिको बहुत ही गुप्त रखना चाहिये। कोई जान न ले कि हम अपने प्रभुजीकी भक्ति करते हैं। पत्नी थोड़े ढिंढोरा पीटती फिरती है कि वह अपने पतिके चरणोंमें अपनेको चढ़ा चुकी है। उसकी माँगमें सिन्दूर देखकर, उसके चेहरेपर उल्लास देखकर, उसका उमड़ता हुआ प्रेम देखकर लोग आप ही उसे 'सुहागिन' समझते हैं। लोग समझें या न समझें वह तो सुहागिन है ही-उसका मन-प्राण-जीवन अपने स्वामीके चरणोंसे जुड़ चुका है ही।
९७-भक्ति कहीं प्रकट न हो जाय और लोग उसके कारण मान-बड़ाई न देने लगें-इस बातसे भक्तको बराबर सावधान - सतर्क रहना चाहिये। कच्चा भक्त जहाँ मान-सम्मानके स्वागतमें लगा कि भक्ति छूटी। वह द्वेषमें भी न फँसे, नहीं तो भक्तिका अंकुर ही नष्ट हो जायगा। लोगोंको जनानेमें क्या धरा है? लोग जानें या न जानें, भक्ति तो अपना रस बरसायेगी ही-
अब तो बेलि फैल गयी आनंद-फल होई।
९८-भक्ति हमारे भीतर हो नहीं और लोगोंमें ख्याति हो जाय कि मैं भक्त हूँ-साधकके लिये यह बड़ी आफत है। यदि मेरे हृदयमें भक्ति है और लोग नहीं जानते कि मैं भक्त हूँ तो बड़ा ही सुन्दर। भजनको बड़े जतनसे छिपाकर रखना चाहिये।
९९-भगवान्से बराबर यह प्रार्थना करनी चाहिये कि वे भजनमें उत्साह देते रहें। भगवान्के भरोसे मनुष्य रहे तो उसे बराबर उत्साह मिले। भक्तिमें जैसे-जैसे वृद्धि होगी, वैसे-वैसे उत्साह बढ़ेगा।
१००-जो लोग भजन करते हैं, वे दो बातोंमें सावधान रहें-
१-कहीं ख्याति तो नहीं बढ़ रही ?
२-दोष घट रहे हैं या नहीं।
१०१-मान-बड़ाई आदिके लिये भजनका जो प्रदर्शन है, वह कोरा दम्भ है। विषयोपभोगका सामान इकट्ठा करनेवाले शिष्य गुरुको गिरा देते हैं। विषयोंके अंकुर तो मनमें हैं ही। मान-बड़ाईका भोजन पाकर विषय जग पड़ते हैं और साधक अपनी स्थितिसे उतर पड़ता है एवं अब उसका एकमात्र लक्ष्य मान-बड़ाई हो जाता है। फिर मान-बड़ाईके कारण बड़े-बड़े साधकोंको पतित होते देखा-सुना गया है। मान-बड़ाईको स्वीकार करते ही अन्य अगणित विषयोंके लिये द्वार खुल जाता है। भक्तिके नामपर विषयोंका स्वागत करना पामरताका आवाहन है। इसलिये कि साधक मान-बड़ाईके मीठे विषसे बच सके, यह आवश्यक है कि वह अपने साधनको छिपाकर रखे। किसीपर भी प्रकट न होने दे, कोई जाने ही नहीं कि यह भजन करता है। ख्याति बढ़नेपर तो दोषोंका द्वार खुल पड़ता है-भक्तिका द्वार बन्द हो जाता है। भक्तिसे ही दोषोंका नाश होगा, चित्त निर्मल हो जायगा, भक्तिप्रिय प्रभुका आवास ऐसे ही हृदयमें होता है।
१०२-ज्ञानी हो या भक्त-काम, क्रोध, लोभका परित्याग तो अनिवार्य है ही। अन्तःकरणकी शुद्धिके अनन्तर ही सच्ची भक्ति और ज्ञानका उदय होता है। अपने प्रेम और भक्तिको अपूर्ण मानना ही उस दिशामें आगे बढ़ना है। प्रेमी कब कहेगा कि उसे पूर्ण प्रेम प्राप्त हो गया, अब अधिककी आकांक्षा नहीं। वह तो बराबर यही अनुभव करता रहेगा कि प्रेमका एक कण भी मुझमें नहीं है; मेरा औढरदानी प्रेमास्पद ही मुझपर दया और छोह करके प्रेम करता है और मेरी पात्रता-अपात्रताको ध्यानमें कभी लाता ही नहीं। अपनेको अपूर्ण मानते हुए साधन-पथपर चलता ही रहे-प्राण भले ही छूट जायें, साधन न छूटे।
१०३-एक भी दोष रहे तो वह शूलकी तरह चुभता रहे। सूरदास और तुलसीदास जैसे लोकवन्द्य विश्ववरेण्य महात्मा अपनेको 'मो सम कौन कुटिल खल कामी' कहते हैं तो हम पामरोंका क्या कहना ? मनमें पापका जरा-सा भी लेश है, तबतक अपनेको भक्त न माने। भक्ति और पाप ?
१०४-प्रीति भीतर-ही-भीतर घुलती रहे; मन-प्राण-हृदय उसे
पीते रहें-बराबर पीते रहें- भरसक प्रकट न होने दें। वह प्रकट हो भी सकेगा क्योंकर? वह तो कहने-सुननेकी बात ही नहीं है। हाँ, यदि आप-ही-आप समुद्र उमड़ पड़े और अपने-आप ही अपने काबूमें न रहे तो प्रातःस्मरणीय भक्त शिरोमणि सूरके स्वरमें स्वर मिलाकर गा लें-
अब तो प्रगट भई जग जानी ।
वा मोहन सों प्रीति निरंतर क्यों निबहैगी छानी ॥ भक्तका संसार
१०५-निवृत्तिमार्गमें संसार कुछ है ही नहीं। प्रवृत्तिमार्गमें जगत् है-सब कुछ सत्य है; पर जगरूपमें नहीं, भगवद्रूपमें। शरीर भी भगवान्की ही चीज है। इसकी रक्षामें किसी प्रकारकी अवहेलना न हो। पर इसमें आसक्ति न हो। इसमें ममता न हो। मालिककी चीज है यह भाव कभी न भूले। इस शरीरपर मेरा क्या अधिकार, मेरी क्या आसक्ति ? हो ही क्यों? पर साथ ही इसकी उपेक्षा करके इसे नष्ट न होने दिया जाय। यह तो मालिककी थाती है। करके बस्तु नष्ट हो जाय हो जाय, भले हो जाय; पर अपने प्यारेकी बस्तु नष्ट हो जाय, ऐसा करनेका अधिकार नहीं। स्त्री-पुत्र-धन यह सब प्रभुकी थाती है। इन सबकी सँभाल प्रभुकी वस्तु समझकर खूब चौकसी और प्रेमके साथ करनी चाहिये।
९०६-सभी कार्योंसे प्रभुकी पूजा हो सकती है- यदि हम उसमें छिपे हुए भगवान्का रूप देख सकें। घरके सभी लोग भगवान्की प्रतिमा हैं, घर भगवान्का मन्दिर है, कार्य उपासना है, जिन वस्तुओंसे उनकी सेवा की जाती है, वे सभी पूजाकी सामग्री हैं। इस भावको दृढ़ करनेके लिये आवश्यकता है भजनकी। भजनके बिना अन्तःकरण शुद्ध होता नहीं; अन्तःकरण शुद्ध हुए बिना पात्रता नहीं आती और पात्रता आये बिना, आधार पाये बिना कोई वस्तु ठहर ही कैसे सकती है? इसलिये सबके मूलमें भजन ही है।
१०७-मालीका यही काम है कि बगीचेके प्रत्येक वृक्षकी रक्षा करे, सँभाल करे। जहाँ, जब जैसी आवश्यकता हो पूरी सावधानी और लगनके साथ एक-एक वृक्षकी रखवाली करे, जल दे, कलम करे, जिससे बगीचेमें अच्छे-अच्छे फूल-फल लगें। यदि माली वृक्षों और फूलोंकी पूरी सँभाल नहीं करता और उससे अच्छे-अच्छे फल उत्पन्न नहीं करता, तो वह नमकहराम है और मालिककी निगाह बचाकर यदि फलको बेच आता है तो बेईमान है। उसका तो एकमात्र कर्तव्य है सावधानी और प्रेमसे फल-फूलकी रक्षा करना। उन्हें तैयार होनेपर मालिकके हाथ सौंप आना। यदि कभी मालिक कोई फल अपनेसे ही माँग ले तो आनन्दका क्या कहना ? मालीको तो यह समझना चाहिये, आज मेरी सारी साध पूरी हो गयी कि मालिकने स्वयं अपने अमित प्रेम और आनन्दमें मुझसे फल माँगा। यह तो मालिककी बड़ी ही दया है।
१०८-यह घर मालिकका बगीचा है, सभी प्राणी मालिककी चीजें हैं और सब कार्य हैं मालिककी सेवा। यदि कभी हमारा मालिक हमसे कोई चीज माँग ले तो हृदय प्रसन्न हो जाना चाहिये कि मालिकने बड़ी दया की, बड़ा प्यार जतलाया। यदि हमारे स्वजनोंमेंसे कोई प्रभुकी बुलाहटपर हमसे हट जाय तो यह सोचकर कि प्रभुने उसे अपने पास बुला लिया, उसे स्मरण किया हमें मनमें प्रसन्नता मनानी चाहिये। जबतक हमारे पास है, तबतक प्राण देकर भी उसकी रक्षा और सेवा करनी चाहिये और जब उसने माँग लिया, तब बड़ा आनन्द ! सेवा तो मालिककी करनी है, उस वस्तुकी नहीं।
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पुस्तक समाप्त, राधे राधे