'जैसे हो वैसे ही शरण हो जाओ।' जैसे हैं उनके हैं-ऐसा विश्वासकर सचमुच ही अपने-आपको भगवान्‌की शरणमें अर्पण कर दो, फिर तुम्हारी शुद्धि स्वयं भगवान् करेंगे।

'Submit to God as you are.' Believing that you are His as you are, surrender yourself to God and then God Himself will purify you.

SPRITUALITY

आदरणीय परम पूज्य श्री हनुमानप्रसाद पोद्दार जी की लाभदायक पुस्तक 'सत्संग के बिखरे मोती '

1/30/20251 min read

२४-शरणागतिके दो स्वरूप हैं।

(१) शुद्ध होकर भगवान्‌की शरणमें जाना। इसमें शुद्धिके लिये अपना बल लगाना पड़ता है; अपने बलपर शुद्धि करनी पड़ती है।

(२) 'जैसे हो वैसे ही शरण हो जाओ।' जैसे हैं उनके हैं-ऐसा विश्वासकर सचमुच ही अपने-आपको भगवान्‌की शरणमें अर्पण कर दो, फिर तुम्हारी शुद्धि स्वयं भगवान् करेंगे। जो स्वयं अपनी शुद्धि करना चाहता है, उसको बहुत-से विघ्नोंका सामना करना है। निश्चय भी नहीं कि शुद्धि हो ही जाय और होगी भी तो बहुत समय लगेगा।

जिसकी शुद्धि भगवान् करते हैं, उसमें कोई विघ्न नहीं आता। उसमें अशुद्धिका एक कण भी शेष नहीं रह सकता। शुद्धि शीघ्र होती है तथा शुद्धि निश्चित है। Xxxx शुद्धिके जितने भी बाहरी साधन हैं, सभी सन्देहयुक्त हैं। कभी-कभी तो शुद्धि करने जाकर मनुष्य और भी अशुद्ध हो जाता है। भाँति-भाँतिके अभिमान, मद मनुष्योंको अभिभूत कर लेते हैं और वह समझता है कि मैं शुद्ध हो गया। इसलिये किसी भी बाहरी उपायपर निर्भर न करके एकमात्र भगवान्पर निर्भर हो जाओ। वास्तवमें जो साधक अपने-आपको भगवान्‌को अर्पण करना चाहते हैं, उनको यह देखनेकी आवश्यकता नहीं कि हम कैसे हैं; उन्हें तो देखना चाहिये कि भगवान् कैसे हैं। हम पापके पहाड़ हैं, पर भगवान् अनेक पहाड़ोंको अपने अंदर डुबा लेनेवाले महासमुद्र हैं।

२५ प्रश्न जब सब कार्य भगवान्की प्रेरणासे होते हैं, तब कर्मका शुभाशुभ भोग क्यों मिलता है?

उत्तर- जीवोंको कर्मका दण्ड नहीं मिलता। जीव भगवानकी प्रेरणाको भूलकर अपने-आप कर्ता बन बैठते हैं, इस दुरभिमानताका ही उन्हें दण्ड मिलता है। भगवान् ही सब कुछ करवाते हैं- यह भाव यथार्थरूपात होनेपर अशुभ रहता ही नहीं और यदि शुभाशुभ रहे तो भी दायित्ल भगवान्‌का हो जाता है। कर्तापन होनेपर ही कर्म बनता है और कर्म बननेपर ही कर्तापर जिम्मेवारी आती है।

२६-गुरु-आचार्य वही हैं, जो सच्चा रास्ता बतावें, जो अन्धेकी लकड़ी पकड़कर ठीक रास्तेपर लगा देवें।

*२७-शिष्यका-अनुगमन करनेवालेका, बस इतना ही काम है कि वह अपनी लकड़ी गुरुके हाथमें पकड़वा दे। चलना वैसे ही होगा, जैसे वह (गुरु) चलावेगा। चलना कैसे, किस-किस मार्गसे, किस गति (Speed)-से ये सब बातें वह सोचे, जिसके हाथमें लकड़ी हो पर सबसे कठिन काम यही-लकड़ी सौंपना है। आजकल शिष्य अपनी लकड़ी खींचना चाहते हैं- चाहे उसके साथ गुरु भी खिंचे चले आयें और गिर जायें।

२८-गुरुका एक ही कर्तव्य है कि या तो वह किसीकी लकड़ी पकड़े नहीं, यदि पकड़े तो जितना वह जानता है (यह आवश्यक नहीं कि गुरु सब जाननेवाला हो। प्राइमरीका मास्टर पी-एच० डी० नहीं होता। बस, वह तो प्राइमरीको पढ़ा सके इतना ही पर्याप्त है) उतना शुद्ध नीयतसे शिष्यको समझा दे, सिखा दे।

२९-जो कुछ सीखे, उसपर अन्धेकी तरह - परम श्रद्धाके साथ बढ़ चले। जबतक अपनी आँखें काम करती हैं, तबतक वे गुरुकी आँखोंमें दखल करती रहती हैं। पर अन्धा होनेके पहले कुछ कसौटीकी आवश्यकता है। कहीं अन्धेके हाथमें लकड़ी देकर अन्धा न बन जाय। ऐसा होगा तो दोनों ही गड्ढेमें गिर पड़ेंगे।

३०-गुरुका अर्थ परीक्षा दिया हुआ या कान फूंकनेवाला नहीं। गुरु वही जो ठीक-ठीक मार्ग दिखावे, जिसके द्वारा हम आगे बढ़ सकें। जिसको हम गुरु मानें, वह गुरु; जो कहे-हम तुम्हारे गुरु, वह हमारा गुरु नहीं। (इस दृष्टिसे) घड़ी आदिको भी हम गुरु मान सकतेमाला

३१-यद्यपि सन्तकी कोई पहचान नहीं कर सकता। पहचानमें बड़ी गड़बड़ी है। कोई सन्त आये और कहने लगे - सागमें नमक नहीं। हमने झट कह दिया- 'सन्त नहीं, खानेमें आसक्ति है।' पर ऐसी बात नहीं। महात्माओंकी पहचान ऊपरसे नहीं होती। वे नियमोंसे परे होते हैं, नियमोंसे बाध्य नहीं होते। पर फिर भी एक बात है। जिनका अन्तःकरण शुद्ध है, उनके द्वारा सत्-क्रिया ही होती है, उनके द्वारा बुराई कभी होती ही नहीं।

३२-तीर्थमें तीर्थत्व देनेवाले महात्मा होते हैं। भूमिको पावन बनानेवाले महात्मा होते हैं।

३३-जिसके पास रहनेसे दैवी सम्पत्तिकी वृद्धि हो, भगवान्‌की ओर मन जाने लगे, बुराइयाँ मिटने लगें तो समझना चाहिये कि हम रास्तेपर हैं, उससे हमें हानि नहीं, वह हमारे लिये सन्त है। अपनेको उसके हाथमें सौंप देना चाहिये। क्योंकि- जब पत्थर, काष्ठ आदिकी मूर्तिमें भगवान् प्रकट हो जाते हैं, और भक्तको ले जाते हैं, तब ऐसे अपूर्ण मनुष्यमें भगवान् प्रकट हो जायँ और हमें पार कर दें तो इसमें क्या आश्चर्य है?

३४-समर्पणका अर्थ यही है कि अपनी ओरसे, अपनी बुद्धिसे रास्तेमें किसी प्रकारका विघ्न न डाले। अपना तर्क छोड़ दे, सर्वथा सर्वदा गुरुके अनुगत हो रहे। जो कुछ भी गुरु कह दे, अन्धा होकर करे। यह बात है तो बड़ी कठिन और इसमें धोखेकी सम्भावना भी है, पर यदि हमारा मन शुद्ध पारमार्थिक भावसे ओत-प्रोत होगा तो भगवान् बचा देंगे।

३५-यदि हमारा भाव बिलकुल शुद्ध है, परमार्थबुद्धिके अतिरिक्त और कोई इच्छा नहीं है तो भगवान् अन्तर्यामी हैं, वे हमारी भूल (यदि कोई होगी तो) ठीक कर देंगे। जिसके हाथमें अपनेको सौंप दिया है, वह चाहे

उतना नहीं जानता हो (जितनेकी आवश्यकता है) पर भगवान् जानते हैं, अतः वे उसके द्वारा, उसको निमित्त बनाकर हमें आगे बढ़ाकर ले जायेंगे

३६-सच्चे सन्त लाठी पकडनेपर (किसीका भार अपने ऊपर लेनेपर छोड़ते नहीं, छुड़ानेपर भी नहीं छोड़ते। वास्तवमें वे पकड़नेपर छोड़ना

जानते ही नहीं। ३७-

होती है। इसीलिये जिसने सन्तको हाथ पकड़वा दिया और जिसको सन्तने स्वीकार कर लिया, उसके हाथ भगवान्ने पकड़ लिये भगवान्पर सन्तके रूपमें भगवान् बोलते हैं। ऐसी अवस्थामें वह जो कुछ बोलता है, उसे भगवान् मानो अपनी डायरीमें नोट कर लेते हैं। मणिग्रीवसे नारदजीने कहा-इतने दिन बाद भगवान् मिलेंगे। वहाँ उन्होंने पहले श्रीकृष्णसे सलाह थोड़े ही की थी। श्रीकृष्णको स्वयं ध्यान रखना पड़ा कि नारदने ऐसा कह दिया है, अब हमें कब और कैसे मिलना है। यह मजाककी बात नहीं सिद्धान्तकी बात है।

३८-सन्तका जो कुछ है वह सब भगवान्का है। अतः सन्तके 'जो कुछ' में जो कुछ और आकर मिलता है, वह भी भगवान्‌का हो जाता है।

३९-हम गुरुको कुछ न कहें और गुरु भी कुछ न कहें तो भी गुरुका मौन व्याख्यान ही हमें तार देगा।

४०-सन्त और भगवान्में भेद न मानना अच्छा है, पर केवल सन्तको मानना और भगवान्को न मानना अच्छा नहीं है; क्योंकि भगवान्‌को लेकर ही सन्त हैं। सन्त भगवान्का है, इसीलिये उसका आश्रय है। सन्तको माननेवालेको भगवान्‌को मानना चाहिये, नहीं तो भगवान्को भूलनेसे वह सन्तको भी भूल जायगा।

४१-सन्त अपने मुँहसे नहीं कहता कि मैं सन्त हूँ, परंतु सन्तका स्वभाव, उसकी क्रियाएँ, उसके आचरण बराबर इस बातको कहते रहते हैं सन्तके पास रहनेसे हममें दैवीगुण आने लगेंगे, बस, इस रूपमें सन्तने अपनेको बता दिया।