दस महाव्रत [२]- सत्य - सत्य में दृढ़ स्थिति हो जाने पर (योगीकी) क्रिया फल का आश्रय बनती है अर्थात् उसकी वाणी अमोघ हो जाती है
Ten Great Vratas [2] - Truth (1) When a person is firmly established in truth, his actions become fruitful i.e. his words become infallible.
SPRITUALITY


दस महाव्रत [२]-
सत्य
(१)
'सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम् ।'*
* सत्यमें दृढ़ स्थिति हो जानेपर (योगीकी) क्रिया फलका आश्रय बनती है अर्थात् उसकी वाणी अमोघ हो जाती है।
(योगदर्शन २। ३६)
दिन विदा होनेको था। सूर्यभगवान् अस्ताचलपर पहुँच चुके थे। संध्याकी लालिमाने दिशाओंके साथ तरुपल्लवों एवं पृथ्वीको भी अनुरञ्जित कर दिया था। निर्झरका निर्मल प्रवाह सिन्दूरी हो चुका था। पक्षी कलरव करते नीड़ोंको लौट रहे थे। मयूरोंकी केकासे कानन मुखरित हो उठा।
गन्तव्य अभी सुदूर था। पथिक श्रान्त हो चुका था और उसके पैर अब सत्याग्रह करने लगे थे। भालपर पसीनेके बड़े-बड़े बिन्दु चमक रहे थे। उसने अञ्जलि भरकर अपने मुखको प्रवाहके जलसे धोया और तृषा शान्त की। इसके अनन्तर वह कलियोंके भारसे झुके हरसिंगारके नीचेकी स्वच्छ शिलापर अपने कन्धेका कम्बल डालकर उसीपर लेट गया। कुछ ही क्षणोंमें उसकी नासिकासे खरटिकी आवाज निकलने लगी।
शरद्की वही शुभ्र पूर्णिमा थी, जिसमें कभी लीलाधरके अधरोंसे लगी वंशीने त्रिभुवनको सुधा-स्त्रात किया था। धवल ज्योत्स्नाकी गोदमें नीरव शान्त वनस्थली सुषुप्ति-सुखका अनुभव कर रही थी। पथिक एक पूरी निद्रा ले लेनेके बाद जगा। निशीथमें उसे क्षुधाने क्षुभित किया और अपने झोलेसे वह साथ लाया पाथेय निकालकर भोजन करने लगा। क्षुधा शान्त हो गयी। निर्झरके मधुर जलने उसे संतुष्ट कर दिया। प्रगाढ़ निद्राने पथ-श्रम दूर कर ही दिया था। शशाङ्कके इस महोत्सवमें पथिक प्रफुल्ल था। उसका हृदय शान्त और प्रसन्न था। हरसिंगारकी कलिकाएँ खिलने लगी थीं। उनकी मधुर सुगन्धिसे वायु आनन्द प्रदान कर रहा था। पथिकने पुनः शयनका विचार नहीं किया। इतने शान्त-सुहावने समयको वह यों ही निद्रामें खोना नहीं चाहता था। उसने उसी कम्बलपर आसन लगाया और अपने झोलेसे कुछ कागज, नोटबुक, पेन्सिल प्रभृति निकालकर वह अपने आगेके कार्यक्रमको निश्चित करनेमें लग गया।
नोटबुकमें उसीने कभी लिखा था- 'सत्यप्रतिष्ठायां क्रिया-फलाश्रयत्वम्' और इस पंक्तिके नीचे लाल पेन्सिलसे चिह्न लगा था।
वह सोचने लगा- 'सत्यकी प्रतिष्ठासे कर्मका इच्छित फल प्राप्त होता है।' यह महर्षि पतञ्जलिका वचन है। मैंने इसपर चिह्न भी लगाया है कि अवसर पड़नेपर इसपर विचार करूँगा। महर्षिका वाक्य मिथ्या तो हो नहीं सकता, फिर क्यों न सब जंजाल और दाँव-पेचको छोड़कर इसीसे काम निकालूँ। पथिकको पुनः आलस्य प्रतीत हुआ। कर्तव्यके सम्बन्धमें वह निश्चिन्त हो गया था, अतः लेट गया।
(२)
पिण्डारों (ठगों) ने बड़ा उत्पात मचा रखा था। वे यात्रियोंको तो लूटते ही थे, अवसर देखकर ग्राम एवं बाजारोंको भी लूट लेते थे। उनका दल बढ़ता ही जाता था। छत्तीसगढ़में उनका प्राबल्य था और उसमें भी रायपुर-राज्यमें। उन्होंने अब अपना सुदृढ़ संगठन बना लिया था एवं वे डकैती करने लगे थे।
यात्रियोंतक हो तो कोई बात भी है, ग्राम और बाजारोंसे बढ़ते-बढ़ते पिण्डारोंने आज राज्यका तहसीलसे आता हुआ खजाना भी लूट लिया था। खजानेके साथ आनेवाले सिपाहियोंको उन्होंने मार दिया था। इससे सैनिकोंमें बड़ी उत्तेजना थी। सभीको प्राण प्यारे होते हैं। सभी जगह उपर्युक्त घटनाकी चर्चा थी और सिपाही नगरसे बाहर कहीं भी खजानेके साथ न जानेकी सलाह कर रहे थे।
बात मन्त्रीतक पहुँची और उसने महाराजको एककी दो बनाकर समझाया; क्योंकि कुशल सचिव चाहता था कि पिण्डारोंका शीघ्र दमन हो। यही कारण है कि मोहनसिंहके समान शान्त और राज्यकी ओरसे कानमें तेल डालकर महलमें पड़े रहनेवाला राजा भी आज व्यग्र था। उसे चिन्ता हो गयी थी कि कहीं पिण्डारे और बढ़कर पूरे राज्यपर अधिकार न कर बैठें। अपनी सत्ताकी रक्षाके विचारसे राजा आज व्याकुल था।
लगभग सब चतुर, शिक्षित एवं वीर नागरिक निमन्त्रित हुए। उन दिनोंके राज्य ही कितने बड़े थे ? नगरको एक अच्छा बाजार कहना चाहिये। महाराजका दरबार लगा। प्रश्न था- 'पिण्डारोंका दमन कैसे हो ?' अन्तमें मन्त्रीकी सम्मति सबको प्रिय लगी कि 'पिण्डारोंके गुप्त अड्डेका पता लगाया जाय। वहाँ वे सब लोग कब एकत्र और असावधान रहते हैं, यह ज्ञात किया जाय। उसी समय उनपर अचानक आक्रमण हो।'
यह काम करे कौन ? बड़ा टेढ़ा प्रश्न था। महाराजने बीड़ा रखा और पद, पुरस्कार तथा जागीरका लोभ दिखाया। प्राणपर खेलनेका प्रश्न था। सबके सिर झुके थे। बड़ी देर हो गयी, पर किसी ने बीड़ा उठाया नहीं। अन्तमें एक ब्राह्मण युवक उठा। साँवला-दुबला शरीर, भालपर भस्मका त्रिपुण्ड्र और भुजा तथा कण्ठमें रुद्राक्षकी माला। सब उसे आश्चर्यसे देखने लगे। उसने बीड़ा उठाकर मुखमें रखा और बिना किसीको बोलनेका अवसर दिये सभासे शीघ्रताके साथ चला गया।
(३)
'आप कहाँ जा रहे हैं?' एक पथिकसे एक वृक्षके नीचे बैठे दूसरे व्यक्तिने पूछा जो वेष-भूषासे पथिक ही जान पड़ता था।
'पिण्डारोंके अड्डेपर।' बिना किसी संकोचके उसे उत्तर मिला। प्रश्नकर्ताको ऐसा उत्तर पानेकी तनिक भी आशा न थी। वह भौचक्का रह गया और घूरकर उस पथिकके मुखको देखने लगा।
'भाई! मैं भी यात्री हूँ। इधर वनमें भय है। इसलिये साथीकी प्रतीक्षामें बैठ गया था। आप मुझसे हँसी क्यों करते हैं? मैं पिण्डारा थोड़े ही हूँ।' चोरकी दाढ़ीमें तिनका, पथिकके उत्तरसे उस पूछनेवालेको, जो सचमुच एक प्रधान ठग था, संदेह हो गया कि यह मुझे पहचानकर व्यंग्य कर रहा है।
'मैं हँसी नहीं करता' गम्भीरतासे पथिकने कहा। 'सचमुच ही मैं पिण्डारोंके अड्डेपर जाना चाहता हूँ, किंतु अभी मेरे गन्तव्यका मुझे कुछ भी पता नहीं लग सका है। कितना अच्छा होता कि कोई पिण्डारा मुझे मिल जाता।'
'और तुम्हें ठिकाने लगाकर कपड़े लत्ते लेकर चम्पत होता!' हँसकर ठगने बात पूरी की और ध्यानसे अपने शब्दोंके प्रभावको पथिकके मुखपर देखने लगा।
'ठिकाने लगाने या चम्पत होनेकी तो कोई बात नहीं' पथिककी गम्भीरता अखण्ड थी। 'मेरे पास आठ अशर्फियाँ हैं और ये वस्त्र, इन्हें मैं प्रसन्नतासे दे सकता हूँ। फिर कोई ब्राह्मणको व्यर्थ क्यों मारेगा ?'
'देवता ! तब आपको पता होना चाहिये कि मैं ही यहाँके पिण्डारोंका सरदार हूँ।' उसने ब्राह्मणके मुखपर अपने नेत्र गड़ा दिये।
पथिक उल्लसित हो उठा- 'जय शंकर भगवान्की ! मुझे व्यर्थ में भटकना न होगा। आप चाहें तो ये अशर्फियाँ ले लें और कहें तो लँगोटी लगाकर सब कपड़े भी उतार दूँ, किंतु आप इतनी कृपा और करें कि अपना अड्डा मुझे दिखा दें।' अशर्फियोंको ब्राह्मणने झोलेसे निकालकर ठगके आगे रख दिया।
'आप मेरे अड्डेपर क्यों जाना चाहते हैं?' सरदारने ब्राह्मणकी निःस्पृहता और प्रसन्नतासे कुतूहलमें पड़कर पूछा। उसने मुहरें उठा ली थीं और वस्त्र उतरवानेकी बात भी भूल चुका था।
ब्राह्मण एक क्षण रुका- 'क्या यहाँ भी सत्य.... निश्चय। जब सत्य बोलनेसे इतनी सफलता हुई है तो आगे झूठ नहीं बोलूँगा।' उसने स्पष्ट बतला दिया कि 'मैं रायपुर-राज्यका गुप्तचर होकर आया हूँ।' उसने कहा- 'मैंने अनेकों युक्तियाँ सोचीं, किंतु महर्षि पतञ्जलिके सूत्रने सबको दबा दिया। मैंने निश्चय किया कि मैं झूठ नहीं बोलूँगा और अब तो प्रतिज्ञा करता हूँ कि जीवनमें कभी भी असत्यका आश्रय नहीं लूँगा।'
ब्राह्मण युवकके मुखपर सात्त्विक दृढ़ता थी। ठगोंके सरदारका हृदय भी मनुष्यका ही हृदय था। वह उसकी ओर फिर सिर उठाकर देख नहीं सका। चुपचाप घूमकर उसने नेत्र पोंछे और ब्राह्मणको पीछे आनेका संकेत करके घनी झाड़ियोंके बीचमें घुसने लगा।
(४)
रायपुरके महाराजका दरबार लगा था। रुद्रदेव शर्मा पिण्डारोंके अड्डेड्डेका पता, वहाँका मार्ग, उनकी शक्ति प्रभृति सबका पता लगाकर आ गये थे। राजसभामें उन्होंने सब बातोंको सविस्तार सुनाया। केवल उन्होंने छोड़ दिया, कुछ सोचकर या व्यर्थका विस्तार समझ अपने यात्राके वर्णनको।
'पिण्डारोंपर चढ़ाईका भार कौन लेगा?' महाराजने पूछा।
'किंतु पिण्डारे तो परास्त हो चुके हैं। उनपर अब चढ़ाई होगी क्यों ?' एक हट्टे-कट्टे पुरुषने प्रवेश करते हुए कहा। 'गुरुदेवकी सत्यताने पिण्डारोंको पूरी तरह परास्त कर दिया है और उनका सरदार अब उनका स्वेच्छाबन्दी है।' उस ब्राह्मणके चरणोंपर गिरकर वह फूट-फूटकर रोने लगा।
सब चकित थे और ब्राह्मण कर्तव्यविमूढ़ ! पूरा वृत्तान्त ज्ञात होनेपर महाराज सिंहासनसे उतर पड़े। उन्होंने ब्राह्मणके चरणोंमें मस्तक रखा और उस सरदारको उठाकर हृदयसे लगा लिया। रुद्रदेवशर्मा राजगुरु हो गये एवं अभयसिंह पिण्डारा रायपुर-राज्यके मन्त्रित्वको सँभालनेके लिये विवश हुए।
इतिहास अस्थिर होता है, किंतु महत्कर्म उसे भी स्थायी बना ही जाते हैं। छत्तीसगढ़की जंगली जातियोंमें अब भी शपथ देते समय 'झूठ बोलूँ तो रुद्रकी सौगन्ध' कहनेकी प्रथा है। विश्वास किया जाता है कि रुद्रका नाम लेकर झूठ बोलनेवाले के घर या तो चोरी होती है या डाका पड़ता है। रुद्र वहाँ सत्यके प्रतीक हो चुके हैं।