दस महाव्रत [३]- अस्तेय
Ten Mahavrata [3]- Asteya
SPRITUALITY


दस महाव्रत [३]-
अस्तेय
(१)
'अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम्।' *
* चोरीके अभावकी दृढ़ स्थिति हो जानेपर (उस योगीके सामने) सब प्रकारके रत्न प्रकट हो जाते हैं
(योगदर्शन २।३७)
'गुरुदेव ! कलसे भूखा हूँ!'
'तुम इसी योग्य हो कि भूखों मरो !'
बेचारे बालकके नेत्र भर आये। वह नहीं जान सका कि गुरुदेव उससे इतने असंतुष्ट क्यों हैं। उसके शरीरपर एकमात्र कौपीन थी और इस शीतकालमें दो दिनसे उसके पेटमें एक दाना भी नहीं गया था। उसका अङ्ग अङ्ग ठिठुरा जाता था। ऊपरसे यह फटकार। धीरे-धीरे वह सिसकने लगा।
'रामदास !' गुरुदेव द्रवित हुए और स्नेहसे पुचकारा- 'मैं चार दिनके लिये बाहर गया और आश्रम खाली हो गया, सोचो - ऐसा क्यों हुआ ?' बालक सिसकता जाता था। आश्रममें ऐसा था ही क्या, जो खाली हो गया ? गुरुदेव कुल आधसेर तो आटा छोड़ गये थे। उसीको उलटा-सीधा सेंककर बिना नमकके ही उसने दो दिन किसी प्रकार काम चलाया। उनके समय जिन भक्तोंकी भीड़ लगी रहती थी, उनकी अनुपस्थितिमें उनमेंसे कोई मुख दिखाने भी नहीं आया था।
'देखो, झोलेमें थोड़े फल हैं और कुछ मीठा भी। उन्हें निकाल लो!' गुरुदेवकी इस आज्ञाका पालन नहीं हुआ; क्योंकि शिष्य इतना दुखी हो गया था कि उसे रोनेके अतिरिक्त कुछ भी नहीं सूझता था। वह रोता जाता था और अपने हाथोंसे आँसू भी पोंछता जाता था।
'बेटा, रो मत ! झोला उठा तो ला!' चुपचाप उसने आज्ञाका पालन किया और फिर एक ओर खिसककर आँसू पोंछने लगा। गुरुदेवने बहुत-से फल निकाले और कुछ लड्डू भी। अञ्जलि भरकर उसे देने लगे। अब उससे रहा नहीं गया। वह उनके चरणोंमें मस्तक रखकर फूट पड़ा। घिग्घी बँध गयी।
गुरुदेवने उठाकर उसे गोदमें बैठा लिया। आँसू पोंछ दिये। कमण्डलुके जलसे स्वयं मुख धो दिया और स्वयं उसे फल छीलकर खिलाने लगे 'बच्चे, तुम सदा बच्चे ही नहीं रहोगे ! अपनेको समझो और यह तुच्छ मोह दूर करो!' गुरुदेव यों ही कुछ कहते जाते थे। वे प्रायः ऐसी बातें करते थे, जो उनका बालशिष्य समझ नहीं पाता था।
बालकका दुःख कितनी देरका ? गुरुके स्नेहसे वह चुप हो गया। उनकी गोदसे उतरकर वह स्वयं उन फलोंसे क्षुधा शान्त करने लगा।
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(२)
'केवल चोरको अभाव होता है। जो चोरी नहीं करता, उसके चरणोंमें विश्वकी समस्त सम्पत्ति लोटा करती है। जब किसीको फटेहाल और भूखों मरते देखो तो समझ लो कि वह चोर है। यदि कोई किसी प्रकारकी तनिक भी चोरी न करे तो उसे कभी भी आर्थिक कष्ट न होगा।'
एक छोटा-सा ब्राह्मणकुमार था। सुन्दर, गौर एवं लंबे शरीरका । माता-पिता उसे बचपनमें छोड़ चुके थे। वह समीपके प्रसिद्ध संत सिद्धमहाराजके आश्रमपर आया। महाराज न तो किसीको शिष्य बनाते थे और न आश्रमपर रहने देते थे, किंतु न जाने इस बालकमें उन्होंने क्या देखा अथवा बालकका प्रारब्ध समझिये, इसे उन्होंने अपना लिया। पुत्रकी भाँति वे इसका पालन करते और बालक पितासे कहीं अधिक उन्हें मानता।
यों तो श्रद्धालु भक्तोंकी सदा ही आश्रमपर भीड़ लगी रहती थी; पर आज अभीतक कोई आया नहीं था। महाराज बाहरसे लौटे थे, इससे सम्भवतः भक्तोंको अभी पता नहीं लगा होगा। एकान्त पाकर वे अपने शिष्यको समझा रहे थे, जो अपनी लंबी जटाओंको एक हाथसे सहलाता हुआ कौपीन लगाये उनके सामने बैठा उत्सुकतासे उनके वचनोंको सुन रहा था।
'देखो, संसारका यह नियम है कि तुम दूसरोंके जिस पदार्थको हानि पहुँचाओगे, तुम्हारा वही पदार्थ तुमसे छिन जायगा। यही भगवान्का न्याय है। जो दूसरेके लड़कोंको सताता या उनसे द्वेष करता है, उसे लड़के नहीं होते या होकर मर जाते हैं। जो दूसरोंके स्वास्थ्यको बिगाड़ता है, वह रोगी होता है। जो चोरी करता है, वह दरिद्र होता है। इसी प्रकार दूसरोंके ऊपर तुम जो चोट करते हो, वह दीवारपर मारी हुई गेंदकी भाँति तुम्हारे ही ऊपर लौट आती है।'
बालक अभी बालक ही था। उसकी बुद्धि इतने उपदेशोंको ग्रहण नहीं कर सकती थी। उसने स्वाभाविक चपलतासे बीचमें ही पूछा-'गुरुदेव ! चोर तो धन चुराता है, फिर उसके पास खूब धन रहेगा। वह दरिद्र कैसे होगा?'
गुरुदेवने गम्भीरतासे शिष्यको देखा- 'मैं पहले ही समझता था कि तेरा अधिकार अस्तेय-साधनसे ही प्रारम्भ करनेका है। ठीक है, माता प्रकृति तुझे उत्सुक और उत्थित कर रही है।' फिर उन्होंने स्वाभाविक स्वरमें कहा- 'इसे फिर समझाऊँगा ! अभी तो मुझे आज संध्याको पुनः एक यात्रा करनी है। तुम भी साथ चलनेको तैयार रहो!'
गुरुदेवके साथ यात्रामें चलनेका आदेश सुनकर बालक खिल उठा और वह झटपट उठकर उनका झोला ठीक करनेमें लग गया। X
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(३)
'यहीं खड़े रहो और देखो!'
'इस गन्दी सँकरी गलीके पास तो खड़े रहनेको जी नहीं चाहता और इस अँधेरी रात्रिमें यहाँ देखनेको है भी क्या ? कोई यहाँ खड़ा देखेगा तो जाने क्या समझेगा !'
'अभी यहाँ बहुत कुछ होनेवाला है। तुम शान्त होकर देखो। बोलना मत ! आओ, इधर एक ओर छिपकर खड़े रहो!' एक अँधेरी गलीमें श्रावणकी तमसाच्छन्न रजनीमें एक साधु अपने शिष्यसे उपर्युक्त बातें कर रहे थे। आकाशमें बादल छाये थे और छोटी-छोटी बूँदें गिरने लगी थीं। दोनों एक कोनेमें छिप रहे।
गलीमें किसीके आनेकी आहट हुई। दो व्यक्तियोंकी अस्पष्ट फुसफुसाहट सुनायी पड़ी। गली दो अट्टालिकाओंका पिछवाड़ा था। उनमेंसे एककी खिड़की खुली थी। सर्रसे एक ध्वनि हुई और तनिक देरमें कोई काली बड़ी-सी वस्तु ऊपरको जाती दिखलायी दी। एक छोटा-सा खटका हुआ। वह काली वस्तु खिड़कीके भीतर चली गयी। खिड़कीसे आता धीमा प्रकाश बन्द हो गया।
बड़ी देर तक गलीमें सन्नाटा रहा। साधुका बालक शिष्य अपने भीतरकी आकुलता दबाये चुपचाप खड़ा था। मनमें बहुत कुछ पूछनेकी उत्सुकता थी; किंतु गुरुजी बार-बार हाथ दबाकर उसे शान्त रहनेका संकेत कर रहे थे।
ऊपरसे हल्की ताली बजी, नीचेसे भी किसीने वैसे ही संकेत किया। अबकी बार ऊपरसे क्रमशः दो काली काली वस्तुएँ उतरीं। फिर सन्नाटा हो गया। साधु अपने शिष्यको लेकर गलीसे निकले और उसे चुप रहनेको कहकर एक ओर तीव्रतासे चल पड़े। बड़ी दूर नगरसे बाहर जाकर दो-तीन नाले पार करके एक झाड़ीके पास वे रुक गये। थोड़ी दूरपर एक बत्ती जलती थी। दो व्यक्ति बैठे थे, जो अभी-अभी कहींसे एक सन्दूक लाये थे। प्रकाशमें उनका मुख स्पष्ट दिखायी देता था। उन्होंने बक्सके तालेको रेतीसे काटकर बक्स खोला। उसमेंसे सोनेके आभूषण और मुहरें निकालीं। बक्स इन्हींसे भरा था। ... इतना शिष्यको दिखलाकर गुरु उसे लेकर एक ओर चले।
ठीक एक सप्ताह बाद- दोपहरीमें साधु अपने शिष्यके साथ नगरमें घूम रहे थे। एक झोंपड़ीके बाहर दो भाई परस्पर झगड़ रहे थे। झगड़ा था पावभर सत्तूको लेकर। उनमें उस सत्तूका बँटवारा हो रहा था और प्रत्येक चाहता था अधिक भाग प्राप्त करना। उनके वस्त्र चिथड़े हो रहे थे। शरीर धूलसे भरा था। मुख देखनेसे पता लगता था कि सम्भवतः कई दिनोंपर इन्हें यह सत्तू प्राप्त हुआ है।
सत्तू सानकर बाँटना निश्चित हुआ। जल मिलाकर उन्होंने उसका पिण्ड बनाया। फिर बाँटनेके लिये झगड़ा हो ही रहा था कि पीछेसे कूदकर एक बंदर उसे उठा ले गया। उनकी इस दीनतापर वह बालक साधु रो पड़ा।
'रामदास! इन्हें पहले पहचानो और तब रोओ !'
गुरुके वचनोंसे बालकको कुछ स्मरण हुआ। उसने ध्यानसे देखा -'ये तो उस रातवाले चोर हैं! इनके वे गहने और मुहरें क्या हुईं ?'
साधु हँसे- 'तू तो कहता था कि चोर धन चुराकर धनी हो जायगा।'
'गुरुदेव ! पर इनका धन हो क्या गया ?'
'इन्होंने आभूषण और मुहरें छिपानेके लिये उन्हें एक सेठके यहाँ रखा। उसे भी उसमें भाग देनेको कहा। उसे लोभ सवार हुआ। जब ये दुबारा माँगने गये तो देना तो दूर, उसने इन्हें पकड़वा देनेकी धमकी दी। विवश होकर ये लौट आये। इनसे सेठको भय था कि यहाँ रहेंगे तो बदला लेंगे। अतएव उसने अपने आदमियोंसे इनके घरके सब बर्तन, वस्त्र, पशु प्रभृति चोरी करवा दिये। इस प्रकार घरकी पूँजी भी खोकर अब ये दाने-दानेको तरस रहे हैं!'
'गुरुदेव ! इन्होंने तो चोरी की थी, तब भूखों मर रहे हैं। मैंने क्या अपराध किया जो दो दिन मुझे अन्न नहीं मिला और आपने कहा कि तुम इसी योग्य हो कि भूखों मरो !'
'चोरी केवल धनकी ही नहीं होती। जिन वस्तुमें दूसरोंको भाग मिलना चाहिये, उसे छिपकर खा लेना, दूसरेकी वस्तुको बिना माँगे ले लेना आदि भी चोरी ही है। बेटा! बड़ी चोरीसे तो बहुत लोग बचते हैं, किंतु इन छोटी चोरियोंसे ही बचना कठिन है। तुम्हें स्मरण है कि एक दिन एक भक्त तुम्हें इलायची दे रहा था। तुमने उसके देनेपर तो अस्वीकार कर दिया और उसके हटनेपर दो इलायची चुपकेसे उठा लीं। इसी चोरीके फलस्वरूप तुम्हें दो दिन अन्न नहीं मिला।'
शिष्यके नेत्र भर आये। गुरुके चरणोंमें मस्तक रखकर उसने फिर कभी कोई चोरी न करनेकी प्रतिज्ञा की।
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समर्थ रामदास जब किसीको शिष्यरूपमें स्वीकार करते थे तो उससे किसी प्रकारकी कोई भी छोटी-से-छोटी चोरी न करनेकी प्रतिज्ञा कराते थे। उनके शिष्योंने इस प्रतिज्ञाका कितना पालन किया, सो पता नहीं, किंतु सभी जानते हैं कि छत्रपति शिवाजीकी समस्त राज्यविभूति श्रीसमर्थके चरणोंमें लुण्ठित उन्हींकी प्रसादस्वरूप थी। यह समर्थकी अस्तेय-प्रतिष्ठाका प्रताप था।
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