दस महाव्रत [७]- संतोष

Ten Mahavrata [7]- Contentment

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आध्यात्मिक कहानियाँ, geeta press गोरखपुर

2/27/20251 min read

दस महाव्रत [७]-

संतोष

(१)

'सन्तोषादनुत्तमसुखलाभः ।'*

* जिससे उत्तम दूसरा कोई सुख नहीं है-ऐसे सर्वोत्तम सुखका लाभ सन्तोषसे होता है।

(योगदर्शन २।४२)

'मातृभूमिसे इतनी दूर, एकाकी, यहाँ न कोई अपना परिचित है और न स्वदेशका ही। यहाँ भला पाँच रुपयेसे क्या उद्योग करूँ ? शरीर भी तो इतना सबल नहीं कि कहीं मजदूरी ही कर लूँ। कोई उच्च प्रामाणिक परीक्षा भी नहीं दी, नौकरी कौन देगा? कोई कला या व्यवसाय भी नहीं जानता !' बन्दरगाहपर खड़े-खड़े गिरिधारीसिंह सोच रहे थे।

दुर्दैवके मारे बेचारे गिरिधारीसिंह घरसे कलकत्ते आये और जब वहाँ कोई काम न मिला तो बैठे-बैठे पासकी छोटी-सी पूँजीको भी पेटकी भेंट करनेकी अपेक्षा उन्होंने रंगून जाकर भाग्य-परीक्षा करनेका निश्चय किया। एक मास कलकत्तेमें काटकर वे कल जहाजसे रंगून उतरे थे।

'समुद्रयात्रा और जलवायुके परिवर्तनसे आज ज्वर भी प्रतीत होता है। यदि बैठकर दवा-दारू करने लगा तो ये पाँच रुपये भी उदरमें जा रहेंगे और तब......'। उनके सम्मुख उपवास या दर-दर भिक्षा माँगनेका दृश्य आ गया। 'यदि दवा न की और ज्वर बढ़ गया?' स्वजन एवं परिचितोंसे हीन इस अपरिचित स्थानमें रुग्ण होनेपर जो दशा होती, उसका दृश्य पहलेसे भी अधिक भयानक था। सिरपर हाथ रखकर वहीं बैठ गये।

'ऐश्वर्य चाहते हो तो उद्योग करो ! अवश्य मिलेगा !!' भीतरसे किसीने कहा। गिरिधारीसिंहको स्वामी पूर्णानन्दजीके वचनोंपर अटूट श्रद्धा थी। वे उन्हें साक्षात् परमात्मा मानते थे। उन्हींके वचनोंपर विश्वास करके तो वे घरसे कलकत्तेके लिये चले थे। तब क्या स्वामीजीके ये वचन असत्य हैं! ना, ऐसा तो हो नहीं सकता। अब भी तो मेरे पास पाँच रुपये हैं। एक बार नवीन उत्साह लेकर वे फिर उठे।

आस्ट्रेलियासे एक जहाज आया था और उसपर गेहूँ भरा था। जहाजपर आनेवाले लोग नवीन थे। गिरिधारीसिंह तनिक स्थूल-शरीर थे और अच्छे कपड़ोंमें रहनेवाले। पासमें कुछ न रहनेपर भी उनके वस्त्र स्वच्छ रहते थे। गिरिधारीसिंहने सोचा- 'कारावास ही तो होगा? वहाँ कम-से-कम पेटकी चिन्तासे मुक्त रहेंगे।' सीधे जाकर जहाजके अधिकारियोंसे पूरा जहाज गेहूँ खरीदनेकी बातचीत करने लगे।

जहाजके अधिकारियोंने समझा- 'बिना दलालके आनेवाला यह कोई धनी, पर नवीन व्यापारी है।' गिरिधारीसिंहको अपने घरसे क्या देना था। झटपट मोलभाव हो गया। इन्होंने पाँच रुपये देकर उन लोगोंसे गेहूँ बेचनेकी रसीद लिखा ली।

लोग कहते हैं कि भगवान्‌को देना होता है तो छप्पर फाड़कर देते हैं। रसीद लिखाकर गिरिधारीसिंह हटे ही थे कि जहाजके अधिकारीने उन्हें फिर बुलवाया। 'आस्ट्रेलियासे कम्पनीके स्वामीका तार आया है कि गेहूँ अभी न बेचा जाय !' गिरिधारीसिंह समझ गये कि गेहूँका बाजार चढ़ गया है। उन्होंने गेहूँ वापस देना अस्वीकार कर दिया। जहाजके स्वामियोंने फिर आस्ट्रेलिया तार खटकाये।

गिरिधारीसिंहसे अनुनय विनय की। अन्ततः खरीदे हुए भावसे आधपाव प्रति रुपये कम करके जहाजवालोंको ही गेहूँ बेच दिया गया। पूरे तेरह हजार सात सौ पचपन रुपयेका चेक लेकर गिरिधारीसिंह नगरमें लौटे।

(२)

भगवती भागीरथीके भव्य कूलपर अश्वत्थमूलमें आज तीन-चार माससे एक मस्त महात्मा पड़े हैं। कमरमें एक कौपीनके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं। मध्याह्नमें गाँवमें जाकर 'नारायण हरि' करते हैं और जो कुछ मिला, अञ्जलिमें लेकर मुखमें डाल लेते हैं वहीं। दो-चार घरोंसे इसी प्रकार भिक्षा करके लौटते हैं और फिर भर-भर अञ्जलि वे श्रीहरिका चरणोदक पान करते हैं। उन्हें किसीसे माँगना तो है नहीं।

भावुक भक्त अपनी भावनाके अनुसार स्वामीजीके सम्बन्धमें अटकल लगाते हैं। कोई उन्हें सिद्ध बतलाता है, कोई तपस्वी, कोई विरक्त और कोई आत्मदर्शी। स्वामीजी कुछ भेंट तो लेते नहीं, गाँवके भोले लोग यों ही उनके दर्शनोंको सुविधानुसार आया करते हैं। स्वामीजी एक तो वैसे ही कम बोलते हैं और दूसरे उनकी गूढ़ बातें समझनेकी यहाँ योग्यता भी किसमें है। खेत और घरसे ही अवकाश नहीं, यह कौन पता लगाये कि मुक्ति, ज्ञान, जिज्ञासा आदि किन पक्षियोंके नाम हैं। महात्माओंके दर्शनसे पुण्य होता है या उनका दर्शन करना चाहिये, इसी सामान्य भावनासे लोग आते हैं। जो हो सकता है, सेवा भी करते हैं। पुण्य होगा, घरमें मङ्गल होगा- इस लोभसे या महात्मा कहीं अप्रसन्न होकर कोई शाप न दे दें-इस भयसे भी।

दोपहरीकी भिक्षा करके स्वामीजी लौटे तो एक दिन उन्होंने एक ग्रामीणको अपनी प्रतीक्षा करते पाया। वैसे ये सज्जन प्रायः नित्य प्रातः-सायं आते हैं और स्थानपर झाड़ देना आदि छोटी-मोटी सेवाएँ करते ही रहते हैं। आनेवालोंमें सबसे उज्वल वस्त्रोंवाले होनेपर भी यहाँ निस्संकोच धूलिमें बैठते हैं। आज इस दोपहरीमें सब अपने-अपने काममें लगे होंगे, स्वामीजीके पास एकान्त होगा- यह समझकर वे आये थे। स्वामीजीसे अकेलेमें वे कुछ कहना चाहते थे और अवसर मिलता ही न था।

'गिरिधारीसिंह ! आज दोपहरीमें कैसे!' असमयमें आनेके कारण स्वामीजीने पूछा। उत्तरके स्थानपर आगन्तुक स्वामीजीके चरणोंमें मस्तक रखकर सिसकने लगा ठीक बच्चोंके समान। स्वामीजीने उसे उठाया और आश्वासन देकर कारण पूछा।

'माता-पिताके प्यारने कष्ट सहनेमें असमर्थ बना दिया है। कभी अपमान सहना नहीं पड़ा और न परिश्रम ही करना पड़ा। पिछले वर्ष पिताके देहान्तसे ही विपत्ति प्रारम्भ हुई। घरमें कोई सम्पत्ति नहीं। कृषिका श्रम सहा नहीं जाता। पर्याप्त पढ़े-लिखे भी नहीं कि कहीं नौकरी करें। अब सरकारी लगान देना है। महाजन ऋण देता नहीं और पुराने ऋणको कड़ाईसे माँगता है। घरमें भोजनके लिये भी नहीं।' यही सब कष्टकथा सिसकते हुए सुनानेके पश्चात् वे फिर स्वामीजीके चरणोंपर गिरकर फूट-फूटकर रोने लगे।

स्वामीजीने उठाया- 'भैया! रोओ मत! मैं विरक्त साधु हूँ। मेरे

पास द्रव्य तो है नहीं जो तुम्हें दे दूँ। मैं केवल आशीर्वाद दे सकता हूँ। सुख यदि चाहते हो तब तो संतोष करो! नहीं, यदि ऐश्वर्य चाहते हो तो उद्योग करो !! अवश्य मिलेगा, जिसे चाहोगे !'

ऐश्वर्यसे भिन्न सुखकी कल्पना भी उस समय गिरिधारीसिंह नहीं कर सकते थे। उन्होंने तो 'उद्योग करो और ऐश्वर्य अवश्य मिलेगा !' इसी आशीर्वादको ग्रहण किया। स्वामीजीके आशीर्वादपर उन्हें विश्वास था। वे प्रसन्न हो गये।

'न ठिकानेसे भोजन, न स्नान, दिनभर हाय-हाय करते-करते जान चली जाती है। रात्रिमें भी विश्राम नहीं।' झुंझलाकर रंगूनके प्रसिद्ध आढ़ती बाबू गिरिधारीसिंहने टेलीफोनकी घंटी बजनेपर फोन लेनेके बदले कनेक्शन पृथक् कर दिया। आज दिनभर उन्हें अत्यधिक व्यस्त रहना पड़ा था। बारह बजे रात्रिमें शयन करनेको लेटनेपर इस टेलीफोनका आना उन्हें बहुत अखरा।

'इससे तो मैं घरपर ही शान्तिसे रहता था। न इतनी चिन्ता थी और न इतना परिश्रम ही करना पड़ता था। इससे मिलो, उसे देखो, ये संतुष्ट रहें, उन्हें अप्रसन्न करनेसे हानि होगी- मैं इन सब बखेड़ोंमें दिनभर नाचते-नाचते तंग आ गया।' उनके झुंझलाये मस्तिष्कमें एक आँधी चल रही थी। नेत्र बंद करनेपर भी निद्रा पास नहीं फटकती थी। अन्तमें विचारोंकी उद्विग्रतासे त्राण पानेके लिये उन्होंने बिजलीका बटन दबाया और पास पड़ी रामायण उठा ली।

बिनु संतोष नकाम नसाहीं। काम अछत सुख सपनेहुँ नाहीं ।।

सर्वप्रथम यही पंक्ति सामने आयी और यहीं समाप्त ! पुस्तक बंद करके यथास्थान रख दी गयी। 'स्वामीजीने यही तो कहा था कि सुख चाहते हो तो संतोष करो। मैं उस समय सम्पत्तिका इतना भूखा था कि उससे भिन्न सुखको समझ ही न सका। उन महापुरुषका आशीर्वाद अब भी मेरे साथ है। ऐश्वर्य रोगकी पीड़ा भली प्रकार भोग चुका। अब और नहीं-बस।' उन्होंने प्रकाश बंद कर दिया और सो गये।

दूसरे दिनसे सबने देखा कि गिरिधारीसिंह कुछ दूसरे ही हो गये हैं। 'घाटा हो रहा है-हो जाने दो। अत्यावश्यक कार्य है-पूजासे निवृत्त होनेपर। कलक्टर अप्रसन्न हो गये तो हानि हो सकती है-क्या मेरा प्रारब्ध ले लेंगे' सहकारी हैरान थे। 'घाटे-पर-घाटा होता जा रहा

है और यह ऐसा अजीब मनुष्य कि इसे सिर-पैरका ध्यान ही नहीं रहता। पहले तो यह बड़ा उद्योगी था। अब क्या हो गया?' किसीने धनका गर्व बताया और किसीने मस्तिष्कका विकार।

संसारमें नीति चलती है और परलोक तथा अन्तःकरणमें धर्म। धर्म नीतिपर विजय पाता अवश्य है; किंतु पराकाष्ठापर पहुँचकर। अन्यथा नीतिकी उपेक्षाका दण्ड महाराज हरिश्चन्द्रको भी भोगना पड़ा। यहाँ भी यही हुआ। इस उपेक्षाके फलसे दिवाला निकल गया। गिरिधारीसिंहको कुछ छिपाकर तो रखना नहीं था। सब कुछ एक ही दिनमें जिस समाजसे एकत्र हुआ था, उसीमें वितरित हो गया। रंगून छोड़कर जब गिरिधारीसिंह कलकत्ते उतरे, उनके पास केवल पाँच रुपये थे। ठीक उस दिनकी भाँति, जिस दिन वे सर्वप्रथम रंगून पहुँचे थे।

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भगवती भागीरथीके भव्य कूलपर एक अश्वत्थके मूलमें ईंटोंका एक छोटा-सा चबूतरा है। वृद्ध भगत ठाकुर उसपर गङ्गामें गोता लगाकर घर लौटते हुए एक लोटा जल और पासके कनैरसे दो पीले पुष्प नित्य चढ़ाते हैं। लोग कहते हैं कि इकलौते पुत्र तथा पत्नीकी मृत्युपर भी भगत ठाकुरने मुसकराकर कह दिया था कि 'चलो ठीक हुआ'; किंतु इस चबूतरेपर पुष्प चढ़ाते हुए उनके नेत्रोंके कोनोंसे एक साथ कई बूँदें निकल आती हैं। लोग बाबू गिरिधारीसिंहको अब इसी नामसे सम्बोधन करते हैं। उनके नित्य प्रसन्न मुखपर किसीने कभी विषादका चिह्न नहीं देखा। हमने उस दिन प्रत्यक्ष देखा कि यमराज भी उनकी मुसकानको म्लान न कर सके !