दस महाव्रत [४] ब्रह्मचर्य (१)

Ten Mahavratas [4] Celibacy (1)

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आध्यात्मिक कहानियाँ, geeta press गोरखपुर

2/25/20251 min read

दस महाव्रत [४]

ब्रह्मचर्य

(१)

'ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां वीर्यलाभः ।' *

* ब्रह्मचर्यकी दृढ़ स्थिति होने पर वीर्य (सामर्थ्य) का लाभ होता है।

(योगदर्शन २।३८)

पयस्विनीके पावन तटपर एक शिलापर बैठा मैं बार-बार अपनी पुस्तकको खोलता और उपर्युक्त सूत्रको पढ़कर फिर बन्द कर देता। मेरे सिरपर एक पारिजातका वृक्ष झूम रहा था। वायुके कोमल शीतल स्पर्शसे प्रसन्न होकर वह अपनी सुरभित निधि बार-बार मेरे ऊपर उँड़ेलता जाता था और मैं उसकी इस सुमनवृष्टिको आदरसे स्वीकार करके कभी-कभी एकत्र भी कर लेता था - चरणोंके नीचे कलकल करती भागती जाती पयस्विनीकी लोल लहररूपी बालिकाओंको खेलनेके लिये अञ्जलि भरकर पुनः पुनः प्रदान करने एवं उस क्रीड़ासे नेत्रोंको तृप्त करनेके लिये।

उस पार थी सघन वनावली और उसके दक्षिण-कक्षमें भवनोंके शिखर दृष्टि पड़ते थे। अपने पीछेकी छोटी झाड़ीके पार खेतोंकी श्रेणीको मैं भूल गया था। इस समय तो यात्रामें साथ लाये योगदर्शनसे उलझा बैठा था और बीच-बीचमें स्वभावतः हाथ सुमनोंको एकत्र करके जलमें डालते भी जा रहे थे। यह क्रीड़ा थी, अर्चन नहीं।

मैं सोच रहा था-एक बच्चा भी जानता है कि यदि पैसा खर्च न किया जाय, तो बचेगा। यदि भोजन न करें, तो अन्न बचा रहेगा। इसी प्रकार ब्रह्मचर्यपालनसे वीर्यलाभ तो स्वाभाविक है। इसे कोई मूर्ख भी सरलतासे जान सकता है या जानता ही है। फिर महर्षि पतञ्जलिने यह सूत्र क्यों बनाया? स्वभावका विधान तो कोई अर्थ नहीं रखता। जैसे दूसरे यम-नियमोंका उन्होंने महत्त्व बतलाया है, वैसे ही इसका भी क्यों नहीं बताया ? वीर्यलाभ तो कोई विशेष बात हुई नहीं। ब्रह्मचर्य कोई उपेक्षणीय विषय है भी नहीं, तब ऐसा क्यों हुआ ?

मैं ठहरा ज्ञानलव-दुर्विदग्ध, अतः संसारमें अपनेको सबसे बड़ा समझदार माननेवाला मेरा मस्तिष्क गतिशील हुआ-महर्षि भी तो मनुष्य ही थे, मनुष्यसे भूल होती ही है। यहाँ उन्होंने भूल की है। तब यहाँ ठीक क्या होगा ? ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठासे बल मिलता है।

नहीं - मेरे पासके ग्राममें सुखरामसिंह कितने प्रसिद्ध पहलवान हैं; किंतु वे ब्रह्मचारी तो हैं नहीं। उनके स्त्री है, कई बच्चे हैं। उनके अखाड़ेमें जानेवाले कई एकको तो मैं जानता ही हूँ। उनमें जैसी गन्दी बातें होती रहती हैं, उससे कोई सभ्य पुरुष उनके पास बैठना भी पसन्द नहीं करेगा। अतः ब्रह्मचर्यसे बल होता है, यह तो ठीक नहीं। तब ? ब्रह्मचर्यसे शरीर मोटा होता है ? यह तो उपहासास्पद है। थुलथुल मोटे क्या ब्रह्मचारी हैं सभी ? ब्रह्मचर्यसे तेज होता है, बात कुछ ठीक लगी।

ऐं! तेज या चमक तो अग्निका गुण है। पित्त-प्रकृतिवालोंके मुखपर चमक हो सकती है। मेरे ग्रामके जमींदारका ललाट कितना चमकता है; किंतु आचरणके सम्बन्धमें तो उनका पर्याप्त अयश है। स्मरण आया-प्राकृतिक चिकित्साके आचार्योंका मत है कि ललाटपर मेदकी मुटाई या चमक रोगका चिह्न है। वह सूचित करता है कि उदरका विजातीय द्रव्य मस्तकतक पहुँच चुका है।

बल, शरीरका गठन एवं दृढ़ता, मोटापन, तेज, स्फूर्ति- ये सब ब्रह्मचर्यके प्रधान लक्षण नहीं हैं। ये ब्रह्मचर्यसे प्राप्त नहीं होते, ऐसा नहीं कहा जा सकता। इनकी पूर्णता अवश्य ब्रह्मचर्यसे ही होती है। फिर भी इनकी उपलब्धि ब्रह्मचर्यके बिना सम्भव है। बल एवं शरीरगठन मांसपेशियोंसे होता है। पुष्टिकर भोजन और व्यायामसे ये प्राप्य हैं। मोटापन स्निग्ध पदार्थोंकी भोजनमें अधिकता या किसी भी कारणसे शरीरमें मेदकी वृद्धिसे होता है। पित्तकी भालपर पहुँच तेजका कारण है और वह रोगका पूर्वरूप भी हो सकता है। स्फूर्ति आती है अभ्याससे। सैनिकोंमें और चोर डाकुओंमें वह पर्याप्त होती है।

तब क्या पाश्चात्त्य लोगोंकी सम्मति ही ठीक है? ब्रह्मचर्य व्यर्थकी कल्पना है, उससे कुछ बनता-बिगड़ता नहीं; 'ब्रह्मचर्यसे वीर्यलाभ'-यह तो कोई लाभ नहीं हुआ ! वीर्यलाभ न भी हो तो क्या हानि ? उसके अतिरिक्त भी तो उपाय हैं जो सबल, सशक्त, सतेज रखते हैं। क्यों उसीपर बल दिया जाय ?

ब्रह्मचर्य, जिसका शास्त्रोंमें इतना महत्त्व है, जो भारतीय संस्कृतिके धार्मिक एवं सामाजिक जीवनकी रीढ़ है, वही व्यर्थ ? हृदय इसे स्वीकार करनेको तनिक भी प्रस्तुत नहीं हो रहा था। मैं चला था समस्याको सुलझाने, वह दुगुनी उलझ गयी। अनेक प्रकारके तर्क उठने लगे। साँड़ ब्रह्मचारी नहीं होता- पर वह बैलोंसे सुदृढ़ होता है। बैल यदि बधिया न हों और संयत रहें? साँड़ अल्पायु भी तो होता है! मैं इन तर्कोंके जालमें उलझकर श्रान्त हो गया और पता नहीं कि कब मुझे उस शीतल-मन्द समीरकी कोमल थपकियोंने उसी शिलापर पारिजातकी सुरभित गोदमें सुला दिया।

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(२)

'दुबला-पतला शरीर, कमरमें कौपीन और सिरपर जटा- ये ब्रह्मचारी हैं! सो भी आजन्म ब्रह्मचारी!' मुझे तो विश्वास नहीं होता था। 'चर्म अस्थियोंसे चिमटा और मुखपर भी कोई विशेषता नहीं। इन्हें कौन ब्रह्मचारी कहेगा ?' उन्होंने संकेत किया और मैं उनके पीछे चलने लगा।

पता नहीं क्या हुआ, वे उपवास करने लगे और उनके साथ मैं भी। एक दिन गया, दो दिन गया और तीसरा दिन भी बीत गया। हमलोग कहीं जंगलमें थे, जहाँ यमुनाजी भी थीं। एक मिट्टीका घड़ा था। उसे कोई भरता नहीं था। फिर भी जब मैं उसमेंसे पानी उँड़ेलता

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तो वह भरा ही मिलता। वही यमुनाजलमात्र हम दोनों पीते थे।

पेटमें चूहोंने डंड लगाना छोड़कर चौकड़ियाँ भरना प्रारम्भ कर दिया। भूखके मारे मेरी दुर्दशा होती जा रही थी। प्यास न लगनेपर भी भूख मिटानेके लिये बार-बार जल पीता था। दिनभर पड़ा रहता था चटाईपर! पानी लेनेको भी उठना भारी प्रतीत होता था। सिरमें चक्कर आने लगता था।

मेरी तो यह दशा थी और वे ब्रह्मचारी ? उनकी कुछ मत पूछिये। पता नहीं वे पत्थरके बने थे या लोहेके। स्नान करने यमुनाजी जाते तो दौड़कर, फिर जलमें भली प्रकार तैराई करते। जाने कहाँ-कहाँसे पुष्प एकत्र करके अपने नन्हे ठाकुरको सजाते। पूजा-पाठसे छुट्टी पाकर इधर-उधर फुदकते फिरते। भागवतका पाठ करते। कुछ न होता तो मेरी दुर्बलतापर खिलखिलाकर हँसते और मेरी हँसी उड़ाते। जैसे उन्हें कभी भूख लगती ही नहीं।

'आपको भूख नहीं लगती क्या ?'

'लगती क्यों नहीं ?'

'भूख लगती तो ऐसे फुदकते फिरते !'

वे हँस पड़े- 'ब्रह्मचारीके वीर्यमें भी तो कुछ शक्ति होती है।

जो तनिकसे कष्टसे व्याकुल हो जाय, वह कैसा ब्रह्मचारी ?'

'ओह.........' मैं कुछ और कहनेवाला था, इतनेमें हमारे झोंपड़ेके द्वारमें एक नृसिंहदेवके लघु भ्राता व्याघ्रदेवने अपना श्रीमुख दिखलाया।

कुछ न पूछिये- मेरा हृदय उछलने लगा। रक्त शीतल होने लगा। उस अशक्तिमें भी मैं उठा और उछलकर कोनेमें जा रहा।

'आइये भगवन् !' ब्रह्मचारीजी हँसकर बोले। 'आप भी यमुना-जल पीकर हमारे सङ्ग उपवास कीजिये !'

उन्हें भय भी नहीं लगता था। बाघने मुख फाड़ा और मैं चीख पड़ा। ब्रह्मचारीने एक बार मेरी ओर देखा। मुझे हाथ-पैर पेटमें किये दीवारमें प्रविष्ट होनेका व्यर्थ प्रयत्न करते देख वे फिर जोरसे हँसे।

'हमारे मित्र आपसे डर रहे हैं; उन्हें कष्ट है; अतः आपका लौट जाना अच्छा है।' गम्भीर होकर उन्होंने व्याघ्रपर दृष्टि डाली। उसके दोनों पैर भीतर आ गये थे और वह मुझे घूरने लगा था।

'उधर नहीं, पीछे!' और तब एक क्षण रुककर ब्रह्मचारीने उस वनराजके मस्तकपर एक चपत जड़ दी। 'लौटता है या नहीं?' उन्होंने अपनी खड़ाऊँ उठायी। जैसे वह कोई चूहा हो, जो खड़ाऊँसे ठीक किया जा सके।

आप हँसेंगे, मुझे भी अब हँसी आती है, किंतु उस समय मेरी दूसरी ही दशा थी। उस खड़ाऊँसे भी आशा जा अटकती थी। 'डूबतेको तिनकेका सहारा'। बाघने एक बार एकटक ब्रह्मचारीको एक क्षण देखा और फिर पीछे मुड़ा। उसने मुड़ते ही छलाँग भरी, साथ ही कठोर गर्जना की।

मैं चौंक पड़ा। उस गर्जनाका भय अब भी हृदयको धड़का रहा था। श्वासका वेग बढ़ गया था। कुशल यही थी कि मैं पयस्विनीके तीरपर उसी शिलापर था। मेरे ऊपर हरशृङ्गारके पुष्प पड़े थे।

झटपट उठकर बैठ गया। पुस्तक अब भी शिलापर एक ओर खुली पड़ी थी। मैंने उसे उठाया। सर्वप्रथम उसी सूत्रपर दृष्टि पड़ी, जिसपर विचार करते-करते मैं सो गया था।

अभय, धैर्य, साहस, ओज, मनोबल- ये सब वीर्यके अन्तर्गत आ जाते हैं। मुझे यह समझनेकी आवश्यकता रह नहीं गयी थी। ब्रह्मचारी तितिक्षु, धीर, निर्भय, स्वभावप्रसन्न एवं अन्तर्मुख होता है; क्योंकि वह वीर्यशाली होता है। उसे वीर्यकी प्राप्ति होती है।

मेरा हृदय उत्फुल्ल था और श्रद्धासे मेरा मस्तक उसी ग्रन्थपर झुका हुआ।

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