दस महाव्रत [९]- स्वाध्याय

Ten Mahavratas [9]- Self-study

SPRITUALITY

आध्यात्मिक कहानियाँ, geeta press गोरखपुर

2/28/20251 min read

दस महाव्रत [९]-

स्वाध्याय

(१)

'स्वाध्यायादिष्टदेवतासम्प्रयोगः ।' *

* स्वाध्यायसे इष्ट-देवताका साक्षात् होता है

(योगदर्शन २।४४)

'चैतन्य महाप्रभु जब दक्षिणकी यात्रा करने गये थे, तब एक स्थानपर उन्होंने एक ब्राह्मणको श्रीमद्भगवद्गीताका पाठ करते देखा। ब्राह्मण सम्भवतः संस्कृत नहीं जानता था; क्योंकि वह श्लोकोंका शुद्ध उच्चारण नहीं कर पाता था। किंतु पाठके समय उसके नेत्रोंसे अजस्र अश्रुप्रवाह चल रहा था। महाप्रभु उसके पीछे पाठ समाप्त होनेतक खड़े रहे और जब वह पाठ समाप्त करके अपने समीप एक संन्यासीको देख उन्हें प्रणिपात करने लगा तो महाप्रभुने 'श्रीहरिः' कहकर उसे आशीर्वाद देनेके पश्चात् पूछा- 'विप्रवर! आप गीताजीके श्लोकोंको समझते हैं ?' ब्राह्मणने नम्रतापूर्वक उत्तर दिया- 'भगवन् ! मैं अज्ञ भला इन गूढ़ श्लोकोंको क्या जानूँ! मैं तो इनको पढ़ते समय यह देखता हूँ कि एक रथपर अर्जुन धनुष-बाण डाले बैठे हैं और श्यामसुन्दर एक हाथमें घोड़ोंकी रास तथा दूसरेमें चाबुक लिये रथके आगे बैठे हैं तथा अर्जुनकी ओर मुख घुमाकर कुछ कह रहे हैं। उनके पतले-पतले लाल-लाल होंठ बोलते समय बड़ी सुन्दरतासे हिल रहे हैं। यही देखते-देखते मैं भूल जाता हूँ कि पाठ समाप्त भी करना है।' महाप्रभु बच्चोंकी भाँति फूट पड़े। रोते-रोते ब्राह्मणको हृदयसे लगाया। उन्होंने कहा- 'गीताजीका ठीक-ठीक अर्थ केवल तुम्हींने समझा है।' क्या तुम कह सकते हो कि 'उस विप्रकी भाँति तुमने एक दिन भी सप्तशतीका स्वाध्याय किया है?'

'भगवन्! मैंने इस प्रकार तो स्वाध्याय नहीं किया।'

'तब तुम कैसे कहते हो कि माँ तुमपर प्रसन्न नहीं होतीं ? माँ और अप्रसन्न ! बच्चे ! माँ तो प्रसन्नताकी मूर्तिका दूसरा नाम है। वह करुणामयी नित्य प्रसन्न हैं। तुम उन्हें सचमुच कभी पुकारते ही नहीं। कैसे हो सकता है कि तुम पुकारो और माँ आयें नहीं ?'

'किंतु मैंने तो.........।'

'रुको ! तुमने दुर्गासप्तशतीके पाठ सविधि समाप्त कर दिये और नवाक्षर बीजमन्त्रोंका जप भी किया हवन-तर्पणके साथ। यही तो तुम कहना चाहते हो? पर सच कहो क्या तुम्हारे मनमें श्रद्धा थी ? मन एकाग्र और प्रेमसे पूर्ण था ? तुम बता सकते हो कि यदि ग्रामोफोनमें सप्तशतीके रेकार्ड बनाकर सहस्र बार बजाये जायँ तो माँ आवेंगी या नहीं ?'

'भला रेकार्ड बजानेसे माँ कैसे आयेंगी?'

'ठीक-रेकार्ड बजानेसे माँ नहीं आ सकतीं; क्योंकि वह जड़ है और उससे क्रियामात्र होती है- भावहीन। माँ क्रियाधीन या कर्मपरतन्त्र नहीं हैं। वे यदि परतन्त्र हैं भी तो भाव या प्रेमपरतन्त्र। इसीसे रेकार्ड बजानेपर नहीं आतीं और तुम्हारी पूजापर उन्हें आना चाहिये, क्यों?'

'मैं ऐसा ही सोचता हूँ।'

'अब बताओ कि तुम्हारा पाठ और जप रेकार्डकी भाँति रटन्त हुआ या मानवकी भाँति प्रेमपूर्ण भाव तथा एकाग्र चित्तसे ?'

'गुरुदेव ! मुझे अपने प्रश्नका उत्तर तो प्राप्त हो गया; किंतु श्रीचरणोंने आदेश किया था कि स्वाध्यायमात्रसे इष्टदेवताका साक्षात् होता है।'

'मैंने कहा अवश्य था; किंतु कहा था मानवके लिये। स्वाध्यायमात्रका अर्थ दूसरे साधनोंकी अपेक्षा बिना केवल स्वाध्यायसे, यह कहना था। पहले स्वाध्यायको समझ लो। जिसकी आवृत्ति करते-करते उसे हृदयका एक भाग बना लिया जाय, जो अपने हृदयका एक अध्याय हो जाय, वही स्वाध्याय है। फिर चाहे वह मन्त्र जप हो या ग्रन्थ-पाठ। ऐसे ही स्वाध्यायसे आराध्यकी प्राप्ति अथवा इष्ट-सिद्धि होती है।'

(२)

हम सबकी भाँति महेशने भी आध्यात्मिक पुस्तकोंको यों ही सूँघ लिया था। कुछ सुन-सुना लिया था। पिता माँ दुर्गाके उपासक थे, घरमें माताके गुणोंका वर्णन होता ही रहता था। बचपनसे पिताने दुर्गाकवच रटा दिया था। भयके ही कारण सही, महेश उसका नित्य पाठ करता था। बचपनके संस्कार धीरे-धीरे वैसा ही सुसङ्ग पाकर पुष्ट होते गये। अब महेशको माताके अतिरिक्त दूसरे किसीकी चर्चा भाती नहीं थी।

घरपर अन्न-वस्त्रका अभाव था नहीं, पत्नी भी अनुकूल मिली थी। यों तो 'जीवन' अतृप्तिका एक नाम है ही; फिर भी महेश उतना हाय-हाय करनेवाला नहीं था। दूसरे, पिताने बराबर उसे समझाया था कि सर्वेश्वरी जगन्मातासे उसकी 'मंगल मंजुल गोद' माँगनेके अतिरिक्त दूसरे, तुच्छ सांसारिक पदार्थ माँगना महामूर्खता है। 'जब हम जगन्माताके राजकुमार हो सकते हैं तो भिखमंगे क्यों बनें!' महेशको इस भिक्षुक मनोवृत्तिसे घृणा थी। वह चाहता था केवल माताका दर्शन।

एक चाह होती है और दूसरी होती है भूख। हम संसारमें जाने क्या-क्या चाहते हैं, यदि कोई बिना हाथ-पैर हिलाये दे दे तो; किंतु जिसके लिये हम भूखे होते हैं, उसके लिये आकाश-पाताल एक कर डालते हैं। महेशमें माताके दर्शनोंकी जो चाह थी, वह बढ़ी और ५७बढ़ते-बढ़ते भूख बन गयी।

पिताका शरीरान्त होनेसे घरका सारा भार महेशके ही सिर आ गया। वह अब स्वयं पिता बन चुका था, इससे उसका दायित्व और भी बढ़ गया था। घरके जंजालोंसे अवसर ही नहीं मिलता था। कई बार विन्ध्याचल जानेका विचार हुआ; किंतु जा न सका। 'ये कार्य तो जीवनभर अवकाश न देंगे।' यह सोचकर उसने जानेका निश्चय ही कर लिया। जहाँ निश्चयमें शक्ति है, वहाँ बाधा क्या!

अष्टभुजाके दर्शन करके जब वह मन्दिरसे निकला तो उसने पंडेसे पूछा- 'इस रमणीक वनमें कोई महात्मा भी रहते हैं ?' पता लगा कि पहाड़ीके उस ओर यहाँसे तीन-चार मीलपर एक अच्छे सिद्ध महापुरुष रहते हैं, किंतु वहाँ जानेका मार्ग बड़ा कठिन है। महेशने कठिनाइयोंकी चर्चा व्यर्थ समझी। वह पंडेकी बतायी पगडण्डीसे चल पड़ा। झाड़ियोंमें झुकते, कण्टकोंमें उलझते, ऊँची-नीची चट्टानोंपर चढ़ते-उतरते किसी प्रकार वह उस गहन वनकी एकान्त फूसकी कुटियामें पहुँच गया।

एक तूंबी, एक कुल्हाड़ी, चिमटा, मृगचर्म और धूनीके पास कुछ काष्ठ, बस वहाँ इतना ही सामान था। जगत्‌के नेत्रोंसे दूर वहाँ एक जटा-भस्मधारी श्यामकाय महापुरुष धूनीके समीप दिगम्बर शक्ति-आसनपर बैठे थे। हाथोंमें रुद्राक्षकी माला घूम रही थी। महेशने साष्टाङ्ग प्रणिपात किया। महापुरुषके नेत्र उठे। उस बेधक एवं गम्भीर दृष्टिने सब समझ लिया। 'तू आ गया यहाँ? कैसे आया है?'

'श्रीचरणोंके दर्शनार्थ?' एक क्षण रुककर महेशने पुनः हाथ जोड़कर पूछा- 'प्रभो! क्या इस अधमको भी माँ अपनायेंगी? मैं भी उनके पादपद्मोंके दर्शन पा सकता हूँ?'

महात्मा मुसकराये, 'अवश्य ! स्वाध्याय करो! इष्टकी सिद्धि जप और पाठसे ही होती है।'

महेशने अनुनय किया और उसे दुर्गासप्तशतीके अष्टोत्तरशतपाठ तथा नवाक्षर बीजमन्त्रके जपका आदेश हुआ। 'तुम आओगे, यह माताने प्रथम ही मुझे सूचित किया था। अब जाओ! दिन ढल रहा है, बस्तीतक अँधेरा होनेसे पूर्व पहुँचना ठीक होगा। जंगल तो हम जंगली लोगोंके लिये ही उपयुक्त है।'

महेशने पुनः साष्टाङ्ग प्रणिपात किया और धूनीसे मिली प्रसादस्वरूप भस्मको वस्त्रमें बाँधकर लौटा।

वह घर आया और पहुँचनेके तीन दिन पश्चात् ही उसने विधिपूर्वक फलाहार एवं भूमि-शयन करते हुए सप्तशतीका पाठ और जप प्रारम्भ कर दिया। कुल एक सौ आठ ही पाठ तो करने थे, पूरे हो गये। जप भी समाप्त हो गया, पर माताका साक्षात् हुआ नहीं।

'मुझसे विधिमें कोई त्रुटि हुई नहीं, माँने दर्शन क्यों नहीं दिया ?'

गुरुके वचनोंपर अविश्वासके लिये हृदयमें स्थान नहीं था। अपनी त्रुटि का स्वयं ज्ञान न होनेपर वह फिर गुरुदेवके चरणोंमें उपस्थित होने विन्ध्याचलको चला।

(३)

पाठ-पाठमें भी भेद होता है। सप्तशतीका पाठ तो सभी करते हैं। किंतु महेशजीका पाठ कुछ और ही ढंगका है। वे श्लोकोंको केवल वाणीसे पढ़ नहीं जाते, हृदयसे उनका पाठ करते हैं। जिन सात सौ श्लोकोंको पण्डितलोग एक घंटेमें समाप्त कर देते हैं, उन्हींमें लगते उन्हें पूरे सात घंटे। पाठके पश्चात् जब जप प्रारम्भ होता - दूसरा ही कोई उनसे बार-बार भोजनके लिये आग्रह करता तो वे उठ पाते। अन्यथा उन्हें स्मरण ही नहीं होता कि कुछ और भी संसारमें मुझको करना है।

दुर्गापाठके उन सीधे-सादे श्लोकोंकी स्फूर्ति जब हृदयसे होती, पता नहीं कितने गुरुतर गम्भीर अर्थोंका उनसे उद्भव होता। वे गहन तत्त्व जो हम सब बडे-बडे भाष्योंके द्वारा भी समझ नहीं पाते. दीर्घकालीन शास्त्रोंके पठन-पाठनसे भी कठिनतासे उपलब्ध होते हैं, महेशजीको उन श्लोकोंमें सरलतासे प्राप्त हो जाते थे। इसे चाहे माँकी कृपा कहिये या एकाग्रताका परिणाम।

धीरे-धीरे वासनाएँ शान्त होती गयीं और दशा यहाँतक पहुँच गयी कि 'माँका दर्शन हो' यह इच्छा भी पता नहीं, कहाँ चली गयी। पाठमें स्वाभाविक रुचि थी और जपमें आनन्द आता था। यह भूल ही गया कि पाठ कितना हुआ और जप कितना? जब कभी महेशजी गुनगुनाते रहते-

सब कुछ ले लो किंतु, तुम्हारी पूजाका अधिकार रहे। प्यार रहे न रहे पर प्रिय, मुझपर पूजाका भार रहे ॥

एक दिन प्रातःकाल सदाकी भाँति उनके कमरेका द्वार खुला नहीं। पत्नी घबरायी और आठ बजते-बजतेतक जब पुकारनेपर भी द्वार न खुला तो उसने बढ़ईसे किवाड़ तुड़वा दिये। महेशजीके नेत्रोंसे गङ्गा-यमुना बह रही थीं। वे किसी दूसरे ही लोकमें थे। बड़ी देरमें वे प्रकृतिस्थ हुए।

लोग कहते हैं कि महेशजी रात्रिमें कमरा बन्द करनेपर 'माँ, माँ' कहकर प्रायः किसीसे बातें किया करते हैं।

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