दस महावत [१०]- ईश्वरप्रणिधान

Ten Mahouts [10]- Ishwarpranidhan

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आध्यात्मिक कहानियाँ, geeta press गोरखपुर

3/1/20251 min read

दस महावत [१०]-

ईश्वरप्रणिधान

(१)

'समाधिसिद्धिरीश्वरप्रणिधानात् ।' *

* ईश्वर-प्रणिधान (शरणागति) से समाधिकी सिद्धि हो जाती है।

(योगदर्शन २।४५)

बाबा रघुनाथदासजी कुछ पढ़े-लिखे नहीं थे; बचपनमें ग्राम-पाठशालामें पढ़ने जाते अवश्य थे; किंतु जिस दिन अध्यापकने हाथ लाल कर दिये, उसी दिनसे उन्होंने भी सरस्वतीको नमस्कार कर लिया। माताके एकमात्र वही संतान थे, सो भी पितृहीन। ऐसे प्यारे बच्चे कहाँ पढ़ा करते हैं?

कोई चिन्ता थी नहीं। माताके स्नेहने अभावका अनुभव करने ही नहीं दिया था। भोजन, खेल और अखाड़ा - बस, वे इतना ही जानते थे। शरीर अच्छा बना हुआ था। आकार भी लम्बा था। लम्बी आकृति, पुष्ट शरीर और गेहुँआँ रंग-एक भव्य मूर्ति प्रतीत होती थी।

भाग्य किसीका सगा नहीं है। माताका शरीरान्त होते ही अवस्था बदल गयी। घरपर कोई सम्पत्ति तो थी नहीं। यजमानोंके घर जाकर, सैकड़ों युक्तियोंसे माता सब काम चलाती थी। उसकी अनुपस्थितिमें अपने सिर भार पड़ा। पुरोहिती कभी की हो तो करते भी बने। कभी एक मित्रके घर भोजन कर आये और कभी दूसरेके ।

इस प्रकार कितने दिन काम चलता ? अन्तमें नौकरी कर ली -पुलिसमें। घरपर तो कोई था नहीं, जिसकी चिन्ता करनी हो। पैसेके लिये झूठ-सच करनेसे वैसे भी उन्हें घृणा थी। सङ्ग अच्छा मिल गया। अक्षरज्ञान तो था ही, अपने साथीकी देखादेखी 'रामचरितमानस' को • ईश्वरप्रणिधान

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उलटा-सीधा पढनेका अभ्यास करने लगे। प्रारम्भसे वैष्णव साधुऑपर श्रद्धा थी। कोई साधू आ जाता तो उसे भोजन बनवाकर प्रसाद कराकर, तब जाने देते। पासमें एक साधुकी कुटी थी। समय मिलता तब वहाँ दिनमें एक चक्कर अवश्य लगा आते। एक-दो दोहे रामायणके साधु महाराजसे सुन आते। हो सकता तो कुछ सेवा भी कर देते।

साधु महाराज रामनवमी अयोध्याजीमें करना चाहते थे। काशी, प्रयाग, चित्रकूट होकर घूमते-घामते उन्हें अयोध्याजी जाना था। पौषमें चलनेका विचार था, जिसमें माघभर तीर्थराजमें कल्पवास किया जा सके। रघुनाथ त्रिपाठीने भी उनके साथ चलनेका निश्चय किया। छुट्टीकी अर्जी भेजनेपर जब वह स्वीकृत नहीं हुई तो नौकरीसे इस्तीफा दे दिया।

साधु महाराजके साथ प्रयागमें कल्पवास करके चित्रकूट-दर्शन करनेके अनन्तर अयोध्या पहुँचे। वहाँका जो दृश्य देखा तो फिर इच्छा न हुई कि उस दिव्यभूमिका परित्याग किया जाय। साधु महाराज तो रामनवमी करके विदा हो गये और रघुनाथ त्रिपाठीने बाबा सीतारामदासके चरणोंकी शरण ग्रहण की। गुरुदेवकी कृपासे वे रघुनाथ त्रिपाठीसे बाबा रघुनाथदास हो गये। लाल पगड़ीके स्थानपर मस्तक जटाओंसे भूषित हुआ।

(२)

मनुष्यको देखकर कोई नहीं कह सकता कि उसके भीतर कितने महान् संस्कार दबे पड़े हैं और कब वे किस रूपमें जाग्रत् होंगे। कौन जानता था कि एक पुलिसका अनपढ़ सिपाही एक दिन उत्कृष्ट तितिक्षु एवं प्रगाढ़ भगवद्भक्त होगा। किंतु हुआ कुछ ऐसा ही।

श्रीसरयूजीके विमल पुलिनपर कटिमें मौंजी मेखला तथा एक कौपीन लगाये बाबा रघुनाथदास वर्षके आठ मास व्यतीत कर देते थे। केवल चातुर्मास्यमें, जब सरयूजी पुलिनको गर्भस्थ कर लेतीं तो वे घाटके एक बुर्जमें आ जाते थे। वहाँ न धूनी थी और न कन्था। एक तुम्बी अवश्य वे साथ रखते थे, नित्यकर्ममें उपयोगके लिये।

दिनमें एक बार सरयूजीमें प्रातः स्नान करनेके उपरान्त चले जाते हनुमानगढ़ी और कनकभवन। उधरसे ही पेटको भी भाड़ा देते आते। कण्ठ और कर तुलसीकी मणियोंसे भूषित थे ही। करकी सुमिरनी अविश्रान्त चलती ही रहती थी। एक ही कार्य था 'सीताराम, सीताराम' बस।

पता नहीं उनके उस गौरचर्मको स्थूल एवं कृष्णप्राय बनानेमें कितनी शीत एवं ग्रीष्म ऋतुओंने श्रम किया होगा। सरयूजीकी लहरें ही बता सकती हैं कि उनकी सीतारामकी ध्वनिकी कितनी मालाएँ श्रीकौशलकिशोरके पावन पदोंमें समर्पित हो गयी हैं। स्वयं बाबा रघुनाथदासको इन उलझनोंसे कोई मतलब नहीं था। सर्दी आवे या गरमी जाय, उनके लिये सब समान। उनकी समझसे 'सीताराम' का जप कभी भी पूरा नहीं हो पाता था। वे उसमें नित्य अतृप्त बने रहते थे।

यम-नियम तो व्यापक हैं। इनके बिना कोई किसी भी साधनका अधिकारी होता ही नहीं। जो पल-पलमें आसन बदलता है, वह अभ्यास क्या करेगा। एक आसन सभी साधकोंको सिद्ध करना ही पड़ता है। बाबा रघुनाथदासजीके लिये यम-नियमोंकी चर्चा व्यर्थ है। ये तो उनके स्वभाव बन गये थे। जब वे सिद्धासन लगाकर बैठते थे तो आवश्यकता होनेपर ही उठते थे। चार-छः घंटेतक तो क्या, एकादशीको वे पूरी रात्रि एक ही आसनसे बैठे रहते थे।

मन और प्राणका अभिन्न सम्बन्ध है। प्राणनिरोधसे मनोनिरोध और मनोनिरोधसे प्राणनिरोध सम्पन्न होता है। बाबा जब अपनी 'सौताराम' रटमें तल्लीन होते तो मनको कहीं जानेका अवकाश ही नहीं मिलता। इस मनीनिरोधमें जैसा दृढ़ एवं दीर्घकालीन प्राणायाम हो जाता था, वैसा चेष्टापूर्वक कभी हो नहीं सकता। जब मन ही एकाग्र है तो इन्द्रियाँ कहाँ जायें ? उसके सहयोगके बिना उनमें शक्ति ही कहाँ है? प्रत्याहार तो स्वयं हुआ करता है।

बाबा रघुनाथदासजीने न कभी प्राणायाम किया और न प्रत्याहार। ये स्वयं हो जाते हैं, यह भी उन्होंने कभी सोचा नहीं। धारणा यदि थी तो 'सीताराम' नामकी और ध्यान था तो 'युगल सरकार' का। यह धारणा-ध्यान भी वे जान-बूझकर योग करनेके लिये नहीं करते थे।

जब वे आसन लगाकर प्रारम्भ करते 'सीताराम, सीताराम' तो उन्हें शरीर और संसार दोनों ही विस्मृत हो जाते थे। प्रारम्भ तो वे करते थे उच्च स्वरसे; पर धीरे-धीरे स्वर गिरता और अन्तमें वाणी रुक जाती। जप श्वाससे चलता और जब श्वास भी शिथिल हो जाता तो मनीराम इस गुरुतर कार्यको सँभालते। सामने रहते थे युगल सरकार। और दोनों नेत्रोंसे दो धाराएँ कपोल, हृदय और घुटनोंपर होती हुई श्रीसरयूजीकी रेणुकामें अदृश्य होती जाती थीं। इसके अतिरिक्त भी कोई समाधि हो तो वह हुआ करे। इतना अवश्य है कि यह सबीज समाधि ही थी।

(३)

'नाम' स्वयं महान् है और कहीं उसके साथ नामीका स्मरण भी रहे, तब तो उसकी तुलना केवल उसीसे हो सकती है। क्या आश्चर्य था जो नामके सहारे बाबा रघुनाथदास इस भौतिक शरीरसे ऊपर उठ जाते थे ? जिस समय वे आसन लगाकर बैठते थे, लोग कहते हैं कि उनका न श्वास चलता था, न हृदय और न शरीरमें उष्णता ही रहती थी। वे कनक भवनसे लौटकर प्रायः ग्यारह बारह बजे बैठते थे और दस बजे रात्रितक उधर जानेवाले देखते थे कि वे वैसे ही बैठे हैं। प्रातः साढ़े तीन बजे सरयूस्रान करनेवाले एक साधु कहते हैं कि वे 'उस आसनसे चार बजेके लगभग उठते हैं, उठकर स्नानादिमें लग जाते हैं। पता नहीं, वे सोते कब होंगे। सोते हैं भी या नहीं?'

एक दिन प्रातःस्नान करनेवालोंने देखा कि रघुनाथदासजी ज्यों-के-त्यों बैठे हैं। जब वे दस बजे तक भी न उठे तो भक्तोंने पुकारा, हिलाया। बड़ी कठिनतासे उन्होंने नेत्र खोले। पता नहीं, उन्हें क्या हो गया था ? न तो किसीकी बात सुनते थे, और न समझते थे। ऐसे चारों ओर देखते थे मानो कोई आश्चर्य देख रहे हों। हाथ जोड़कर रोने भी लगते थे। भक्तोंने उठाकर स्नान कराया। प्रसाद सम्मुख आनेपर भी जब उन्होंने नहीं उठाया तो भक्तोंने उनके मुखमें अपने हाथसे ग्रास दिये।

थोड़े दिनों यही क्रम चलता रहा। भक्तजन लगभग नौ-दस बजे बाबा रघुनाथदासको स्नान कराते और उन्हें अपने हाथसे भोजन कराते। वे अब कभी अपने-आपमें रहते नहीं थे। भक्त उन्हें सरयू-किनारेसे उठाकर कनकभवनमें ले आये। उसी कनकभवनमें जो आरम्भसे ऐसे प्रभुके लड़ैते लालोंका क्रीड़ाप्राङ्गण बनता रहा है, बाहरी घेरेके एक कमरेमें उनका आसन लगा दिया।

एक दिन लोगोंने देखा कि बाबाके मुखमण्डलसे दीप्त प्रकाश निकल रहा है। उनकी ओर देखा नहीं जाता। नेत्र चकाचौंध करते हैं। मस्तिष्कमें वहाँ पहुँचते ही 'सीताराम, सीताराम 'की ध्वनि इतनी प्रबलतासे गूँजती है कि प्रतीत होता है कि यदि मुखसे दुराग्रहपूर्वक सीताराम न कहा जाय तो मस्तिष्क फट जायगा। वहाँ पहुँचते ही प्रत्येक व्यक्ति बराबर वहाँ रहनेतक सीताराम कहनेको विवश हो जाता है।

एक-एक करके अठारह दिन व्यतीत हो गये। भक्तोंने सब प्रकारसे हिलाकर, पुकारकर, शंख-घड़ियाल बजाकर प्रयत्न कर लिया, बाबा रघुनाथदासके नेत्र नहीं खुले। उनके मुखका प्रकाश प्रखरतर होता गया। यही प्रकाश बतलाता था कि शरीरमें अभी प्राण है। आज है रामनवमी। ठीक बारह बजे उधर प्रभुके जन्मकी पहली तोप दगी और इधर उसी क्षण रघुनाथदासजीके कमरेमें एक धड़ाका हुआ। एक भक्तने बढ़कर देखा और फिर वहाँ भीड़ हो गयी। मस्तक ठीक मध्यसे फट गया था। शरीर रक्तारुण बना था और रघुनाथदास श्रीरघुनाथके दिव्यधाममें पहुँच चुके थे !