यात्रा को आनन्दमय बनाने की सामर्थ्य

The ability to make travel enjoyable

SPRITUALITY

पुस्तक 'आनंद यात्रा' , लेखक श्री धर्मेन्द्र मोहन सिन्हा

5/17/20251 min read

I-(३) यात्रा को आनन्दमय बनाने की सामर्थ्य

अपनी जीवन-यात्रा को आनन्दमय बनाने की चेष्टा में मनुष्य विभिन्न प्रकार के कर्मों में प्रवृत्त होता रहता है। कर्म करने के लिये वह अपने शरीर, प्राण, बुद्धि तथा जीवन पर ही निर्भर रहता है। किन्तु अथक परिश्रम के बाद भी स्थायी सुख-शान्ति हाथ ही नहीं लगती। विवश होकर मन में निराशा के विचार बैठने लगते हैं कि शायद जीवन को आनन्दमय बनाने की सामर्थ्य उसे कुछ कम प्राप्त हुई है।

दूसरी ओर, धर्मशास्त्रों तथा संतों का स्पष्ट आश्वासन है कि मनुष्य-जीवन प्राप्त ही इसलिये हुआ है कि इस छोटी सी अवधि में प्रत्येक मनुष्य अपने लिये पूर्ण आनन्दमय भविष्य का निर्माण कर सके। यह भी बताया गया है कि अपनी आनन्दरूपता में स्थित होने के लिये हर मनुष्य को आवश्यकता से कई गुनी अधिक सामर्थ्य भी प्रदान की गयी है।

प्र.१) यदि ऐसी बात है, तो फिर उस सामर्थ्य की कमी का अनुभव क्यों होता है?

उ.) यदि यह सामर्थ्य कहीं-कहीं व्यर्थ ही झर रही है, अथवा उसका अनुचित दिशा में अपव्यय1 हो रहा है, तब दी हुई सामर्थ्य अपर्याप्त ही सिद्ध होगी। इसके फलस्वरूप मन में आनन्द तथा उल्लास धीरे-धीरे समाप्त हो जायेंगे। यदि हम तनाव से दबे हैं, बिखराव से त्रस्त हैं तथा मन को एकाग्र करने में असमर्थ हैं, तो यात्रा सुखमय न होकर थकावट, खिन्नता, निराशा, रोग तथा कभी-कभी मृत्यु का भी रूप ले सकती है।

प्र.२) प्राप्त सामर्थ्य किन कारणों से झर-झर कर व्यर्थ ही बह जाती है?

उ.) यदि हम चारों ओर दृष्टि दौड़ायें तो यही दीखता है कि जीवन-यात्रा में अधिकांश मनुष्य अपनी यात्रा का प्रयोजन, उसकी दिशा और यात्रा के लिये अपनी सामर्थ्य पर विचार ही नहीं करते। अन्य लोगों की देखा-देखी वे केवल अपनी सांसारिक कामनाओं की पूर्ति में आजीवन लगे रहते हैं। यह सभी का अनुभव है कि किसी भी व्यक्ति की सारी इच्छाएँ पूरी नहीं होतीं; जो पूरी हो भी जाती हैं, वे सहज रूप से नहीं होतीं, अपितु भारी प्रयत्न के बाद ही हो पाती हैं। बहुधा उनकी पूर्ति कष्ट तथा तनाव के साथ ही होती है। एक इच्छा पूरी होते न होते वह दस और उत्पन्न करके ही जाती है। यदि किसी व्यक्ति की दस इच्छाओं में से नौ पूरी हो भी गयीं, पर एक पूरी नहीं हुई, तो उस एक निष्फल इच्छा का दुःख, पूरी हुई नौ इच्छाओं के सुख को खा जाता है। इस प्रकार अधिकांश व्यक्ति आज नहीं तो कल अपनी इच्छा अपूर्ति के भँवर में अपनी प्रसन्नता तथा अपने उल्लास को डुबो ही डालते हैं। कामना-अपूर्ति से उत्पन्न हुए क्लेश, दुःख तथा निराशा ही वे असंख्य छिद्र हैं जिनमें से मनुष्य की प्राप्त सामर्थ्य निरर्थक रास्तों में झर-झर कर बह जाती है।

प्र.३) कई बार परिस्थितियों के रूप में अनेक प्रकार की बाधाएँ उत्पन्न होती हैं जिसमें समय, शारीरिक शक्ति या धन का नाश हो जाता है। इस प्रकार के सामर्थ्य-नाश का सामना क्यों करना पड़ता है?

उ.) कामनापूर्ति के प्रयास उन बिन्दुओं के आस-पास ही मंडराते रहते जो मात्र पशुओं को शोभा देते हैं अर्थात भोजन, निद्रा-आराम तथा यौनाचार । हैं. ये सब शरीर से सम्बन्धित सुख लेने की इच्छा के पक्ष हैं। इनकी पूर्ति के लिव धन-सम्पत्ति, पद-प्रतिष्ठा तथा दाम्पत्य सुख की वासनाएँ भी मनुष्य को घेरे रहती हैं। जो परिस्थिति इनमें सहायक प्रतीत होती है, वह अनुकूल लगती है, जो इसमें बाधा पहुंचाये, वह प्रतिकूल लगती है। इस सब में इस तथ्य की उपेक्षा हो जाती है कि भक्तवत्सल भगवान् ने प्रकृति को इसलिये नियुक्त किया है कि वह भक्त के जीवन को आनन्द यात्रा बनाने के लिये तथा उसके आस्तिक भाव की पुष्टि के लिये, उसकी आवश्यकताओं को सहज रूप से पूरी करती रहे। परन्तु अधिकतर मनुष्यों की चेतना तथा उनके कर्म, भगवान् से विमुख हो जाते हैं और पशु स्वभाव के उन्मुख हो जाते हैं। तब वही प्रकृति तथा प्रकृति द्वारा धारण की हुई मानव-रचित व्यवस्थाएँ भी ऐसे मनुष्य का हर पग पर विरोध करती हैं। इसमें भी प्रकृति का उद्देश्य कल्याणकारी ही होता है कि व्यक्ति की दिशा भगवान् की ओर मुड़ जाय। कामना से प्रेरित व्यक्ति का अधिकांश समय व्यवस्था से जूझने में व्यय हो जाता है और उसका काम सहज रूप से होता नहीं दीखता। हर काम के लिये उसे अथक प्रयत्न करना पड़ता है, उसकी व्यवस्था करने तथा आवश्यक सामग्री जुटाने में उसकी कमर टूट जाती है। धीरे-धीरे उसे तनाव घेरने लगते हैं, नींद नहीं आती और रोग असमय बढ़ते जाते हैं। मुख्य बात यह है कि इस सब में उसका मन घोर अशान्ति, आक्रोश, क्रोध इत्यादि नकारात्मक2 भावों से भरा रहता है, जो उसके अन्तर को कृश3 करते रहते हैं। इन भावों से त्रस्त होकर किसी भी प्रकार अपनी कामनापूर्ति कर लेने की त्वरा में धीरे-धीरे मनुष्य पापाचरण में प्रवृत्त हो ही जाता है। इस प्रकार वह अपने लिये और भी दुःखमय भविष्य का निर्माण कर बैठता है।

प्र.४) अगर हम सज्जन हैं, न किसी का कुछ बिगाड़ते हैं, न किसी प्रकार की चोरी करते हैं तथा अपनी जीवन-यात्रा के लिये जो भी सामर्थ्य प्राप्त है, उसका उपयोग अपने हिसाब से अपना कर्तव्य पूरी मेहनत से निभाने के लिये करते हैं, तो उसमें क्या हानि है? क्या यह पर्याप्त नहीं कि हम अच्छे इन्सान बनने की कोशिश करें ?

उ.) हर मनुष्य को चार अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सामर्थ्य प्राप्त हैं, जिनके कारण वह अपने आप को कर्म करने योग्य पाता है -

(१) शरीर,

(२) प्राण,

(३) जीवन,

(४) बुद्धि

सबसे पहले तो हर मनुष्य को ईमानदारी से यह निश्चय कर लेना चाहिये कि क्या ये चार वस्तुएँ उसकी अपनी सम्पत्ति हैं? यदि हैं, तो क्या इन चारों पर उसका पूरा वश है? पर यह तो हर एक का अनुभव है कि न चाहते हुए भी प्रत्येक शरीर बूढ़ा और रोग-ग्रस्त हो जाता है, प्राण किसी भी समय प्राणधारी से बिना पूछे शरीर को त्याग देते हैं, जीवन में ऐसे-ऐसे कठिन मोड़ आ जाते हैं जिसकी सपने में भी इच्छा नहीं होती और बुद्धि भी हर समय पूर्ण रूप से मनुष्य के नियंत्रण में नहीं रह पाती। इसका निष्कर्ष यही निकलता है कि इन चारों वस्तुओं को कोई भी मनुष्य अपनी सम्पत्ति नहीं समझ सकता कि वह जैसा चाहे अपनी इच्छा से उनका उपयोग कर ले। ये चारों ही किसी अन्य शक्ति से प्राप्त हुए हैं। जिसने भी इतनी मूल्यवान वस्तुएँ हमें दी हैं, निश्चित ही बहुत सोच-समझकर, अत्यन्त प्रेम से और अपने किसी विशेष काम के लिये दी हैं।

अब किसी और की दी हुई सम्पत्ति हमने ले तो ली, परन्तु यह जानने का प्रयत्न ही नहीं किया कि उसने यह वस्तुएँ क्यों दी हैं। यह जाने बिना, हम अपनी ही इच्छा और समझ से उनका उपयोग करने लगे, तो यह सीधी-सीधी बेईमानी नहीं तो और क्या है? उदाहरण के रूप में यदि किसी कार्यालय ने अपने कर्मचारी को ५०,०००/- रुपये दिये और साथ में एक पर्चे पर लिखकर आज्ञा दी कि बाज़ार से कार्यालय के लिये अमुक प्रकार का कम्प्यूटर खरीद लाना। सुविधा के लिये कार्यालय की गाड़ी और विश्वसनीय ड्राईवर भी दे दिये गये। अब यदि बाज़ार पहुँचकर वहाँ की चमक-दमक में कर्मचारी उस पर्चे को देखने की आवश्यकता ही न समझे और यह भूल जाय कि रुपये व गाड़ी किसने प्रदान किये और किस लिये, तो सम्भव है कि वह अपनी समझ से पूरी ईमानदारी से पूरे ५०,०००/-खर्च करके कार्यालय के लिये एक शानदार मखमल का सोफ़ा-सैट खरीद ले और गाड़ी में किसी तरह रखवाकर कार्यालय ले आये। वहाँ पहुँचे तो पता चला कि रुपये भी डूब गये, गाड़ी में ३-४ खरोंच भी आ गये और उच्चाधिकारी ने डॉट लगाकर नौकरी से बाहर ही निकाल डाला। सज्जन व्यक्ति की यही दुर्दशा है और इसी कारण उनसे यही शिकायत ससुनने को मिलती है "हमने तो अपनी तरफ से किसी का बुरा नहीं चाहा, पर हमारे जीवन में इतनी परेशानियाँ क्यों?" ऐसे में अपने से सवाल तो यह पूछना चाहिये कि क्या हमने पता करने की कभी चेष्टा की कि यह रुपये-गाडी-ड्राईवर (अर्थात् प्राण-शरीर-बुद्धि) किसने और किस काम के लिये दिए हैं? यही तो वह वास्तविक भ्रष्टाचार है जो मनुष्य के अन्दर ही अन्दर पलता रहता है। इसी का प्रतिबिम्ब फिर बाहरी परिस्थिति में भ्रष्टाचार, क्लेश, अशान्ति व अव्यवस्था के रूप में उसको कष्ट पहुँचाता रहता है। यह कष्ट उसे अपने हृदय के भ्रष्टाचार को पहचानने और दूर करने के लिये हर पल मंगलमय प्रेरणा देता रहता है। यदि मनुष्य इसे दूर कर ले, तो उसका हृदय और उसके आस-पास का परिवेश4 आश्चर्यजनक रूप से आनन्दमय बन जाता है।

प्र.५) शरीर-प्राण-जीवन और बुद्धि हमें किसने दी हैं और किस लिये ?

उ.) ये चारों वस्तुएँ हमें परम पिता परमात्मा ने दी हैं। वे ही पूरे ब्रह्माण्ड के रचने वाले हैं, और उन्हीं की बनायी प्रकृति के माध्यम से हमें ये चारों वस्तुएँ सम्पत्ति के रूप में विश्वासपूर्वक दी गयी हैं। जैसे हर मशीन के साथ एक अनुदेश नियमावली (Instruction Manual) अवश्य दी जाती है, वैसे ही भगवान् ने भी हमें साथ में Instruction Manuals दे रखे हैं, जिनसे हमें यह पता चले कि हमें ये सब वस्तुएँ क्यों मिली हैं, इनका उपयोग कैसे करें, इनसे हमें क्या लाभहै और हमें ये सब देने वाली शक्ति हमसे चाहती क्या है ?

प्र.६) भगवान् के Instruction Manuals क्या हैं?

उ.) भगवान् के Instruction Manuals धर्म-ग्रन्थों के रूप में सभी को आसानी से उपलब्ध हैं। भारतवर्ष में दो इतिहास ग्रन्थ माने जाते हैं -श्रीवाल्मीकीय रामायण और महाभारत। महाभारत का ही सार श्रीमद्भगवद्गीता के रूप में उपलब्ध है। इन ग्रन्थों का उद्देश्य है मनुष्य को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की शिक्षा देना। इन ग्रन्थों द्वारा जीवन के सभी पक्षों का विज्ञान विस्तृत रूप से समझाया गया है और शरीर-प्राण-बुद्धि का सदुपयोग कैसे करें, इसके स्पष्ट आदेश हर परिस्थिति के अनुसार बताये गये हैं। परम पिता परमात्मा मनुष्य से यही चाहते हैं कि वह इन धर्म-ग्रन्थों का नियमित अध्ययन करे और उनकी शिक्षा को अपने दैनिक जीवन में धारण करे। यह हम पर बलपूर्वक थोपा हुआ कोई भारी उत्तरदायित्व नहीं है, अपितु उनकी ओर से अत्यन्त प्रेम भरा उपहार है, जिससे अपने जीवन का सदुपयोग करके हम भी उन्हीं की तरह परमात्म-स्वरूप बन जायें।

प्र.७) परमात्मा का स्वरूप क्या है?

उ.) परमात्मा के स्वरूप के चार मुख्य अंग हैं-

(क) सर्वशक्तिमत्ता5 -

सब से अधिक शक्तिशाली सत्ता।

(ख) सर्वव्यापकता6-

हर स्थान, हर वस्तु, हर व्यक्ति, हर कण में व्याप्ति।

(ग) सर्वज्ञता7 - सब विषयों (व्यक्ति, वस्तु, घटना, परिस्थिति) का तीनों

कालों में पूरा ज्ञान।

(घ) सर्वसुहृदता8 - हर प्राणी के परम प्रेममय हितैषी, उनसे बदले में कुछ भी न चाहते हुए, उनके हित में हर समय तत्पर ।

प्र.८) हम परमात्मा के जैसे ही बन जायँ, यह दैनिक-जीवन जीते हुए हमारे लिये कैसे सम्भव है?

उ.) हर मनुष्य अपने दैनिक जीवन में संसार के वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति से सुख की खोज करता रहता है, परन्तु न जानते हुए भी यह सारी चेष्टा वास्तव में अपने परमात्म-स्वरूप में ही स्थित होने की होती है। तभी तो हमारी सारी इच्छाएँ और चेष्टाएँ तीन मुख्य तत्त्वों की खोज में पायी जाती हैं-

(क) सत् - हमारी सत्ता हमेशा बनी रहे, रोजी-रोटी इसलिये कमायें कि मर न जायँ, रोग से हमारे किसी भी अंग का नाश न हो, सभी प्रिय सम्बन्ध भी सदा बने रहें, इत्यादि ।

(ख) चित्- हम चिन्मय रहें, अनुभव करने की शक्ति बनी रहे, अपने जीवन, कार्यक्षेत्र, स्वास्थ्य से सम्बन्धित जानकारी सीखते रहें, अपने भविष्य को जानकर हम निश्चिन्त रहें, इत्यादि।

(ग) आनन्द हम प्रसत्रता का अनुभव करें, यह प्रसन्नता कुछ ही की आने-जाने वाली न हो, अपितु ऐसी हो जो हर समय हर परिस्थिति में बनी रहे, बढ़ती रहे। "सच्चिदानन्द" परमात्मा का ही नाम है, और यदि मनुष्य किसी न किसी निमित्त से सत्-चित् और आनन्द में स्थित होना चाहता है, तो उसकी सभी सांसारिक इच्छाओं में छिपी परमात्म-स्वरूप बनने की चेष्टा आसानी से पहचान में आ जाती है। इसी आधारभूत इच्छा को पूरा करने के लिये ही तो भगवान ने मनुष्य को शरीर, प्राण तथा बुद्धि की सम्पत्ति दी है। श्रीमदभगवदगीता में भगवान् का स्पष्ट आश्वासन है कि जीव उन्हीं का अंश है (१५/७) और धर्मशाला द्वारा बताया सिद्धान्त मानकर जीव उन्हीं के "सच्चिदानन्द" स्वरूप को आसानी से प्राप्त कर सकता है (४/१०, १४/२)। करना केवल यही है कि हम बुद्धि का उपयोग करके मनन करने वाले "मनुष्य" बनने का निश्चय दृढ़ कर लें, पाश में वैधे "पशु" की तरह पशुतुल्य भोगों के पीछे भागते न रह जायें। भगवान् यह भी आश्वासन देते हैं कि यदि हम उनकी आज्ञानुसार अपने जीवन को चलाने की पूरी चेष्टा करें, तो इस परम कर्तव्य के पालन में सुख-सुविधा के लिये वे भोजन. विश्राम-दाम्पत्य के सुख आवश्यक मात्रा में अपने आप हमें प्रदान करते ही रहेंगे (३/१०)। हमें तो बस परम लक्ष्य, परम आनन्द की प्राप्ति के लिये निरन्तर और पूरे मनोयोग के साथ चेष्टा करनी है।

प्र.९) परमात्म-प्राप्ति के लिये तथा जीवन आनन्दमय बनाने की सामर्थ्य बढ़ाने के लिये हमारी चेष्टा के आवश्यक अंग क्या होने चाहिये ?

उ.) सामान्य जीवन जीते हुए घर-गृहस्थी के सारे दायित्वों को निभाते हुए, अपने सांसारिक कर्तव्य को भली प्रकार निभाते हुए भी, परमात्म-प्राप्ति का साधन सहज रूप से किया जा सकता है। इसके ३ मुख्य अंग हैं -

(क) भगवान् के नाम का जप और कीर्तन भगवान् की सच्चिदानन्दः रूपता और उनकी मधुरता का स्मरण करते हुए उनके नाम का नियमित संख्या में जप और उनके नाम-गुण-प्रभाव का नियमित कीर्तन। इससे प्रतिक्षण परमात्मा से समीपता प्राप्त होती है।

(ख) स्वाध्याय धर्मशास्त्रों को दर्पण की तरह उपयोग करके अपने व्यक्तित्व, विचारों, धारणाओं और कर्मशैली का अध्ययन करना और उन्हें शास्त्र की आज्ञानुसार ढालने की चेष्टा करना। इससे भगवद्-विरोधी चेष्टाओं का अभाव होता है और भगवान् की अनुकूलता प्राप्त होती है।

(ग) सत्संग नियमित रूप से किसी निष्ठावान महापुरुष के समक्ष उपस्थित होकर, मन में शिष्यता का भाव धारण करके, उनके आश्रित रहकर, उपरोक्त धर्मशास्त्रों की आज्ञा के पालन में कठिनाईयों का समाधान ढूँढना। महापुरुष का आश्रय स्वयं उनकी वाणी सुनकर या फिर उनके प्रकाशित साहित्य के माध्यम से आसानी से प्राप्त किया जा सकता है।

अपनी ओर से तो परम पिता परमात्मा ने हमें मनुष्य-योनि में जन्म और वह भी भारतवर्ष जैसी आध्यात्मिक संस्कृति में रहकर, इस अध्यात्म-विद्या को ग्रहण करने का परम अवसर प्रदान किया है। इस प्रकार उन्होंने हमारे लिये आनन्द यात्रा की पूरी व्यवस्था कर दी है। अब उसके अनुसार चलने का निश्चय तो हर व्यक्ति को स्वयं ही दृढ़तापूर्वक करना पड़ेगा।

1. wastage 2. negative 3. weak 4. environment 5. Omnipotence 6. Omnipresence 7. Omniscience 8. Supreme Beneficence

प्रकाशक :-

ईशान एकोज

303, महागुन मैनर, एफ-30, सैक्टर-50, नौएडा (उ०प्र०) - 201301

डॉ. आदित्य सक्सैना, (2022) सर्वाधिकार सुरक्षित

प्रथम संस्करण: 2000 प्रतियाँ (8) दिसम्बर, 2008, श्री गीता जयन्ती)

द्वितीय संस्करण: 2200 प्रतियाँ (2) अक्टूबर 2013)

तृतीय संस्करण: 3300 प्रतियाँ (अगस्त 2022)

पुस्तक प्राप्ति स्थान :-

वेबसाइट: www.radhanikunj.org

* संजय अरोड़ा

दूरभाष: ‪+91-98972-31510‬, ‪+91-121-266-0122‬

ईमेल: sanjaythakur75@gmail.com

अबीर मिश्रा

मोबाईल : ‪+91-98111-13488‬

ISBN: 978-81-932793-7-3

मूल्य : रु० 250/- (दो सौ पचास रुपये)

मुद्रक :-

राधा प्रेस

38/2/16, साइट-4, साहिबाबाद औद्योगिक क्षेत्र, गाज़ियाबाद (उ०प्र०)

दूरभाष: ‪+91-120-429-9134‬