अभ्यासकी क्रिया और भगवत्प्रेमका भाव बढ़ाने का प्रयत्न साथ-साथ चलते रहें। पहले गुणोंको देखकर ही प्रेम होता है
The act of practice and the effort to increase the feeling of love for God should continue simultaneously. Love arises only after seeing the qualities first.
SPRITUALITY


६३-अभ्यासकी क्रिया और भगवत्प्रेमका भाव बढ़ानेका प्रयत्न साथ-साथ चलते रहें। पहले गुणोंको देखकर ही प्रेम होता है। परन्तु वस्तुतः प्रेम गुणजनित नहीं है और न वह गुणोंके आधारपर टिकता ही है, लेकिन पहले-पहल गुणोंको सुनकर देखकर प्रेम होता है। अतएव भगवान्के गुणोंका, नामका, स्वरूपका, लीलाका चिन्तन किया जाय। बार-बार भगवान्के मधुर सम्बन्धको लेकर उनकी आवृत्ति होती रहे। इससे अभ्यास बढ़ेगा और हमारा अन्तःकरण प्रकाशसे भर जायगा तथा हमारे मनका संचित मल जल जायगा। भगवान्के चिन्तनमें ऐसी शक्ति है कि वह हमारे अन्तःकरणके मलको निःशेषरूपसे जला देती है और उसे प्रकाशसे भर देती है।
६४-सूर्य और रात्रि दोनों जैसे एक समय एक साथ नहीं रहते,
इसी प्रकार काम और राम साथ नहीं रहते। जबतक जगत्का चिन्तन मनमें है, तबतक हम सर्वनाशके पथपर हैं, पर चाहे हम अपनेको महात्मा मान लें और चाहे दूसरे हमें महात्मा कहें। वस्तुतः महान् प्रभुसे मिलनेपर ही महात्मापन प्राप्त होता है।
६५-विषयोंका चिन्तन सर्वनाशका कारण है और भगवान्का चिन्तन सर्वनाशसे बचाकर सर्वकल्याणका साधन है।
६६-सावधानीके साथ मनको विषयोंसे हटाकर भगवान्के चिन्तनमें न लगाना ही साधनाकी सबसे बड़ी कमी है।
६७-भगवान्का स्मरण करते हुए ही जगत्का काम करना चाहिये। भगवान्का स्मरण पहले और सब समय एक-सा हो तथा जगत्के काम यथासमय यथावश्यक। भगवान्के स्मरणमें यदि व्याघात हो तो इसका परम पश्चात्ताप होना चाहिये।
६८-जबतक मन रागयुक्त होकर भगवान्का स्मरण नहीं करता अबतक कमी-ही-कमी, अतएव भगवान्में अनुराग बढ़ाकर बारयता भगवान्का स्मरण करनेकी चेष्टा करनी चाहिये। भगवान्के गुण, नाम, लोला आदि जिसमें ही मन लगे, अनुराग हो, उसीका चिन्तन करना चाहिये।
६९-मनको विषयोंसे हटानेके पूर्व उसे भगवान्की ओर लगाना चाहिये। पहले अभ्यास होना चाहिये, पश्चात् वैराग्य। ऐसा न होना-हमने मनको एक विषयसे हटाया और उसे दूसरी वस्तु न मिली तो थोड़ी ही देरमें वह पुनः उसी विषयमें आ जायगा। नया खूँटा गाड़कर ही पुराने खूँटेसे पशुको खोलना चाहिये।
७०-भगवान्की अखण्ड स्मृति हो और विषयोंसे पूर्ण उपरामता हो, यह साधनका स्वरूप होना चाहिये।
७१-मनुष्य जो किसी भी स्थितिमें तृप्त नहीं है, यह इसी बातको सिद्ध करता है कि वह किसी पूर्णताकी स्थितिको प्राप्त करना चाहता है। भगवान् सुख और शान्तिके स्वरूप हैं। पूर्ण सुख, अखण्ड सुख, नित्य सुख भगवान्में ही है। हम ऐसे ही सुखको चाहते हैं और ऐसा सुख जगत्में कहीं है नहीं। इसीलिये हम कहीं भी, किसी भी स्थितिमें पहुँच जायँ, हमें अतृप्तिका, अभावका ही बोध होता है। हमारी इस अतृप्तिसे ज्ञात होता है कि हम परिपूर्णतम भगवान्को चाहते हैं।
७२-मनुष्यका 'स्व' जितना ही फैला हुआ होता है, उतना ही उसका 'स्वार्थ' पवित्र होता है और जितना 'स्व' संकुचित-छोटा होता है, उतना ही स्वार्थ अपवित्र होता है, दूषित होता है, गंदा होता है। नदीका बहता हुआ जल बिलकुल स्वच्छ एवं पवित्र होता है, पर जब वह गड्ढेमें इकट्ठा कर लिया जाता है तब वही गंदा हो जाता है, उसमें कीड़े पड़ जाते हैं.... स्वार्थ जब छोटे दायरेमें अटककर गंदा हो जाता है, तब पाप बढ़ जाते हैं। पाप, छल, कपट, चिन्ता, शोक आदि स्वार्थके इस छोटे दायरे में ही होते हैं। इसलिये स्वार्थके संकुचित रूपका त्याग होना चाहिये। जगत्के सब प्राणियोंके प्रति आत्मभाव हो जाय और उनकी सेवाकी, उन्हें सुख पहुँचानेकी स्वाभाविक इच्छा हो, यही विस्तृत स्वार्थ है। यही परमार्थ है।
७३-हम घरके मालिक बने हुए हैं। हमें चाहिये कि इस मालिकीको छोड़कर हम इसके मुनीम (सेवक) बन जायें, फिर यह घर हमारा नहीं, इसके भोग हमारे नहीं, इसके हानि-लाभ हमारे नहीं रहेंगे। हम भगवान्के सेवक बन जायँगे। फिर जो काम होंगे वे सब भगवान्के हो जायँगे। यदि इस प्रकार विषयका सेवन किया जाय तो विषय हमें बाँधते नहीं। जो कर्म भगवान्की सेवाके लिये नहीं होते, वे बाँधनेवाले होते हैं। अतएव कर्म किया जाय, अच्छी प्रकार किया जाय, पर अपने लिये नहीं, भगवान्के लिये हो। भगवान्के लिये कर्म करनेसे 'स्वार्थ' गंदा नहीं होता।
७४-विश्वसेवा ही भगवत्सेवा है और हम सेवा करनेवाले हैं। यह भाव ठीक नहीं; इसमें त्रुटि है। भगवान्की सेवा ही विश्वसेवा है और भगवान्की सत्प्रेरणासे ही हम उन्हींकी वस्तुके द्वारा उनकी सेवा होनेसे निमित्त बनते हैं- यह भाव होना चाहिये। विश्व भगवान्के एक अंशमें है। पर जब मनुष्य विश्वको भगवान्से अलग समझकर उसकी सेवा करते हैं, तब उसमें सेवा करानेवालेका मनोरंजनमात्र होता है और सेवकके मनमें अभिमान आ जाता है, उसमें सेव्यके हितकी दृष्टि नहीं रहती, वरन् सेवक कहलानेकी भावना हो जाती है। इसलिये सेवा भी यथार्थरूपमें नहीं हो पाती। विश्वके लोगोंके मनकी बात होती है, चाहे वह उनके लिये हानिकर ही क्यों न हो। पर जहाँ शुद्ध सेवककी भावना होती है, वहाँ प्रत्यक्ष सुखकी ओर न देखकर सेवक सेव्यके हितकी ओर देखता है। इससे यदि कहीं ऑपरेशनकी आवश्यकता होती है तो उसमें भी संकोच नहीं होता। भगवान्की सेवामें विश्वकी सेवा अपने-आप होती है और इससे जो सेवा होती है, वह निरभिमान भावसे होती है, चाहे उसका रूप कुछ भी हो। भगवत्सेवाके भावसे अर्जुनने युद्ध किया, इससे विश्वकी सेवा अपने-आप हुई। पर यदि अर्जुन भगवान्को भूलकर अभिमानपूर्वक विश्वकी सेवा करते तो वे भगवत्सेवासे विमुख हो जाते और सेवा तो होती ही नहीं। मनुष्य बहुत बार विश्वकी सेवाके नामपर अभिमानकी ही सेवा करता है।
७५-कार्य करते हुए भगवान्का स्मरण करो और भगवत्स्मरण करते हुए कार्य करो-इन दोनोंमें बड़ा अन्तर है। पहलेमें कार्य मुख्य है, दूसरेमें स्मरण। स्मरण निरन्तर चले; बीचमें जब काम आ गया, कर लिया। यही ठीक है।
७६-भय, चिन्ता, विषाद, शोक आदिका प्रधान कारण भगवान्पर अविश्वास ही है। भगवान्पर विश्वास न होनेसे और संसारके पदार्थोंपर विश्वास होनेसे ही भय, चिन्ता आदि उत्पन्न होते हैं। संसारकी वस्तुएँ न तो पूर्ण हैं और न नित्य ही। अतएव उनपर विश्वास करनेसे भय, चिन्ता, विषाद आदि होंगे ही।
७७-हम जिस वस्तुका बार-बार चिन्तन करते हैं, संकल्प करते है, मनन करते हैं, हमारी कल्पनासे वैसी ही वस्तु बन जाया करती है। मनमें साँप है तो वह किसी रस्सीमें साँप पैदा कर लेता है। भूतोंका डर ऐसा ही है। किसी सूखे दूँठको दूरसे देखा कि वह भूत बनकर डराने लगा। इस प्रकार भयका भाव मनुष्यके उल्लास-उत्साहको नष्ट कर देता है। परन्तु दुःख, भय आदिका सामना करनेपर दुःख-भय नहीं रहते। उनका सामना करना क्या है ? - भगवान्पर विश्वास अर्थात् इस बातपर विश्वास कि भगवान् सब वस्तुओंमें सर्वत्र और सर्वथा विराजित हैं और वे हमारे परम सुहृद् हैं, अतः वे जो करते हैं, उसीमें हमारा परम मंगल है।
७८-भगवान्का जो कुछ विधान है, वह हमारे लिये परम मंगलमय है-ऐसा विश्वास हो जाय तो भय रहे ही नहीं। परंतु हम तो अपने मनकी बात करवाना चाहते हैं कि अमुक वस्तु अमुक रूपमें हो जाय। इसीसे हमें भय-चिन्ता आदि होती है।
७९-भयसे क्या होता है? बिना हुए भी मनुष्य आशंका कर लेता है। संदेह होनेपर चेष्टाएँ विपरीत दिखायी देने लगती हैं। भयसे आत्मविश्वास चला जाता है, भयसे साहस जाता है, भयसे प्रयत्नमें कमी आती है, भयसे अविश्वास होता है, भयसे चिन्ता उत्पन्न होती है और भयसे मृत्यु होती है। भय अनेक बुराइयोंका मूल है। भय न रहनेसे साहस होता है और हम सच्चे भयसे भी त्राण पा जाते हैं।
८०-शास्त्रमें जिसके लिये जो कर्तव्य निहित हैं, उसीके अनुसार चलना - संयम और नियमबद्ध होकर शास्त्रोक्त कर्तव्यका पालन करना, यह सच्ची स्वतन्त्रता प्राप्त करनेका साधन है। इंजन जहाँतक पटरीपर है, उसे चाहे जहाँ ले जाइये, पर यदि वह पटरीसे उतर गया तो फिर न तो इच्छित दिशाकी ओर उसे ले जाया जा सकता है और न सहज ही टूट-फूटसे ही बच सकता है।
८१-पाप और पतनका मूल है विषय-चिन्तन और विषयोंमें सुख-
बुद्धि। भगवान्में ही सुख है, अन्यत्र कहीं है ही नहीं - इस आस्थाको लेकर मन भगवच्चिन्तनमें प्रवृत्त हो जाय तो विषय ये ही रहेंगे, पर फिर ये हमारे लिये बाधक सिद्ध नहीं होंगे। उस समय विषय भगवान्की पूजाके फूल बन जायँगे और हमारा मानव-जीवन सफल हो जायगा।
८२-पापकी गति भजनकी गतिसे बहुत पीछे रह जाती है।
८३-सत्संगका अर्थ वास्तवमें यही है कि वह हमें सत् (भगवान्)-के साथ युक्त कर दे।
८४-भगवत्पूजाके लिये विषय-चयन और सुखकी प्राप्तिके लिये विषय-चयन-इन दोनोंमें बड़ा अन्तर है। जब हम सुखकी प्राप्तिके लिये विषय-चयन करते हैं, तब सुख तो हमें मिलता ही नहीं, पद-पदपर आघात लगते हैं। साथ ही पापोंका ही पर्याप्त संग्रह हो जाता है। परंतु यदि भगवान्की पूजाकी सामग्रीके रूपमें हम विषयोंका चयन करें तो वे विषय वैध तथा शुभ होते हैं; क्योंकि वे भगवदनुकूल होते हैं। उनमें पाप नहीं होता और सुख भी असीम मिलता है।