सबसे ऊँची प्रार्थना यह है 'भगवन् ! तुम्हारा मंगलमय स्मरण होता रहे, उसमें कभी भूल न हो।' - दशम माला

The highest prayer is this 'Lord! May I always remember you, may I never make a mistake in it.'

SPRITUALITY

आदरणीय परम पूज्य श्री हनुमानप्रसाद पोद्दार जी की लाभदायक पुस्तक 'सत्संग के बिखरे मोती '

2/9/20251 min read

सबसे ऊँची प्रार्थना यह है 'भगवन् ! तुम्हारा मंगलमय स्मरण होता रहे, उसमें कभी भूल न हो।'

१-एक मनुष्य भगवान् से प्रार्थना करता है-' भगवन् ! मुझे अमुक वस्तु या अमुक स्थिति अमुक समयपर अमुक साधनसे प्रदान कीजिये।' दूसरा कहता है- 'भगवन् ! अमुक वस्तुके बिना मेरा काम नहीं चलता। आप सर्वसमर्थ हैं, जिस प्रकार उचित समझें, उसी प्रकार मुझे वह वस्तु दीजिये।' इन दोनोंमें तो पहलेकी अपेक्षा दूसरा अच्छा है, क्योंकि पहला तो यह भी विश्वास नहीं करता कि भगवान् अपनी मनचाही वस्तु अपने मनचाहे समय और अपने मनचाहे साधनसे देंगे तो उसमें मेरा हित होगा। इसीलिये वह भगवान्‌को वस्तु, समय, साधन बतला देता है। दूसरा, वस्तु तो अपनी मनचाही चाहता है, पर चाहता है भगवान्‌की जब इच्छा हो तभी और जिस साधनसे दें उसीसे। एक तीसरा प्रार्थना करता है कि 'भगवन्! मैं नहीं जानता कि मेरा हित किसमें है। अतएव जिसमें आप मेरा हित समझें, वही करें। मेरी इच्छा आपकी इच्छाके विरुद्ध हो तो उसे कभी पूर्ण न करें।' इसमें भी सकामभाव है। हम अपने लिये चाहते तो हैं, पर समझते हैं कि भगवान् जो कुछ हमारे लिये सोचेंगे, करेंगे, उसमें हमारा अधिक भला होगा, इसलिये उन्हींपर छोड़ दें। यह बहुत श्रेष्ठ है। इससे ऊँची प्रार्थना यह है 'भगवन् ! तुम्हारा मंगलमय स्मरण होता रहे, उसमें कभी भूल न हो।'

२-प्रार्थनाका स्वरूप है- भगवान्‌के साथ विश्वासपूर्वक अपने चित्तका अनन्य संयोग कर देना। ऐसा हुए बिना भगवान्से प्रार्थना होती ही नहीं।

३-प्रार्थनामें श्रद्धा-विश्वास तो है ही, इनके बिना तो प्रार्थना होती ही नहीं, पर दो बातोंकी और आवश्यकता है- पहली, इतना आर्तभाव, जो भगवान्‌को द्रवित कर दे और दूसरी, भगवान्‌की कृपालुतामें ऐसा परम विश्वास-कि प्रार्थना करनेमात्रकी देर है, प्रार्थना करते ही वह कृपालु माँ मुझे अपनी सुखद गोदमें ले ही लेगी ४-उत्तम चीज यह है कि हम भगवान्‌का प्रेमपूर्ण भजन ही चाहें। हमारा कल्याण हो या न हो, इसकी हमें परवा ही नहीं होनी चाहिये।

५-भक्तका सर्वोत्तम भाव यह है कि भजनको छोड़कर वह भगवान्‌को भी नहीं चाहता। वस्तुतः ऐसा होता ही नहीं कि भगवान् मिल जायँ और भजन छूट जाय। पर यदि ऐसी कल्पना करें तो वह भगवान्‌को छोड़ देगा पर भजन नहीं छोड़ सकता।

६-साधनाकी सिद्धि-चाहे पारमार्थिक हो, चाहे लौकिक-

विश्वास करनेपर बहुत जल्दी होती है।

७-जो प्रार्थना शब्दोंकी होती है, वह नकली होती है। यों बैठें, यों शब्द पुकारें, इसमें तो नकलीपन आता है। प्रार्थना जो मनसे होती है, वही असली होती है।

८- भगवान् ही एकमात्र मेरे हैं, मेरे परम सुहृद् हैं अर्थात् भगवान्पर विश्वास और भगवान्में अनन्यता- जहाँ ये दो बातें होती हैं वहीं प्रार्थना सिद्ध होती है। यह केवल भौतिक क्षेत्रमें ही नहीं होते, साधना-क्षेत्रमें भी यही बात है। भक्त ध्रुवके जीवनमें हमें इसका प्रत्यक्ष उदाहरण मिलता है।

९-प्रार्थनासे पहले ही भगवान् उत्तर देते हैं, यह बिलकुल सत्य है। भगवान्के यहाँ योजना पहलेसे ही बनी रहती है। प्रार्थना करनेपर वह प्रकट हो जाती है। यदि ऐसा न हो तो आवश्यकताके ठीक अवसरपर प्रार्थना करनेसे वह कैसे सिद्ध हो जाती है।

१०-लौकिक पदार्थोंके लिये प्रार्थना करना पाप नहीं। पर इसमें हमारा कमीनापन है, ओछापन है। जो वस्तु जानेवाली है, असत्य है, उसके लिये प्रार्थना करना, भगवान्‌के विश्वासको, भगवान्के भजनको, कौड़ियोंके बदले खोना बड़ा बुरा है। अतएव ऐसा नहीं करना चाहिये, इससे सदा बचना चाहिये। इसमें यह हानि है कि हम बहुत बड़े लाभसे वंचित हो जाते हैं। यदि हमारी पूर्ण श्रद्धा न होनेसे कहीं वह प्रार्थना सफल न होगी तो उससे भगवान्‌के प्रति अविश्वास भी हो सकता है।

अतः सकाम प्रार्थनासे बचना चाहिये। भगवान्‌के लिये भगवान्‌की प्रार्थना करनी चाहिये- 'आपकी इच्छा पूर्ण हो और आपकी इच्छा मंगलमय है' पर इसमें यह बात न हो कि 'बिना माँगे अपने-आप अधिक मिल जायगा।' श्रीतुलसीदासजीने केवल दो ही चीजोंके लिये प्रार्थना की-आपका भजन होता रहे और आपके भक्तोंका संग होता रहे-

बार बार बर मागउँ हरषि देहु श्रीरंग। पद सरोज अनपायनी भगति सदा सतसंग ॥

११-भगवान्‌के अवतार दो प्रकारके होते हैं- जनानुकरणयुक्त और जनानुकरणरहित। कच्छप, नृसिंह आदि अवतार जनानुकरणरहित हैं; इनमें भगवान् किसी माता-पितासे जन्म ग्रहण नहीं करते; भगवान् गर्भमें रहे, ऐसी लीला नहीं होती। पर जनानुकरणयुक्त अवतारोंमें उनकी स्वप्रकाशिका शक्ति माता-पिताके रूपमें अवतरित होती है, क्योंकि भगवान् ज्ञानमय हैं, ज्ञानस्वरूप हैं, उनका विशुद्ध सत्त्वके बिना प्राकट्य नहीं होता है।

१२-हमारा ज्ञान चित्तकी वृत्तिविशेष है, भगवान्‌का ज्ञान स्वरूपभूत है। अतएव भगवान्‌का नाम 'ज्ञानस्वरूप' है।

१३-संसार-नदीसे तरनेके लिये सुनिश्चित नौका भगवच्चरणारविन्द ही है। साधारण नदीसे पार जानेपर भी आना-जाना लगा ही रहता है, पर भव-नदी कुछ विचित्र है। यहाँसे जो उस पार चला जाता है, वह कभी वापस नहीं आता और इस भव-नदीसे पार होना श्रीगोविन्दचरण-नौकाके बिना प्रायः सम्भव नहीं है। जो लोग नौकासे पार करते हैं, वे नौकाको साथ ले जाते हैं और जबतक वे नहीं लौटते, इस ओरवाले पार नहीं हो पाते। श्रीभगवच्चरण-नौकासे पार होनेवाले भव नदी पार होनेपर लौटते तो नहीं, पर नौकाको यहीं छोड़ जाते हैं, जिससे जो चाहे उसका आश्रय लेकर सहज ही पार हो जाय।

१४-असंख्यों वीर चाहे करोड़ों वर्षोंतक नाना शस्त्रादिसे अन्धकारको मारें-काटें, पर वह मरता और कटता नहीं; किन्तु जरा-सी प्रकाशकी किरण आयी कि वह अभेद अन्धकार विलीन हो जाता है। ऐसे ही भगवान्‌के चरणोंका आश्रय न करके करोड़ों दूसरे प्रयत्न किये जाएँ, पर यह भव-सागर 'गोष्पद' नहीं होता। जो भगवान्‌के शरणापन्न हो गये, उनके लिये भव-सागर तरना बड़ा तुच्छ कार्य है।

१५-कोई चाहे वह हाथ-पैर मारकर इस भवार्णवसे पार हो जाय तो कभी भी सफल नहीं होता। पर जो 'अगतिके गति' के चरणोंकी शरण हो जाता है, वह पार पहुँच जाता भगवान्के चरण लिये प्राप्त होनेपर भी मूढ़ जीव उनकी ओर नहीं जाता। सबके

१६-जबतक भगवान्‌के चरणोंका आश्रय नहीं होता, तभीतक यह भवार्णव भयानक एवं दुस्तर है। पर जहाँ श्रीभगवच्चरणारविन्दका आश्रय हुआ कि यह तुच्छ गोष्पद हो जाता है। गोष्पद ही नहीं, सूख

जाता है-नामु लेत भवसिंधु सुखाहीं ।

१७-भुक्ति, मुक्ति, सिद्ध-किसीकी भी कामना न कर शुद्ध प्रेमभावसे श्रवण, कीर्तन आदि भक्ति करना ही श्रीभगवच्चरणाश्रय है। शुद्ध भक्तिमें केवल प्रेमपरिपूर्ण हृदयसे भगवान्‌की लीलाका श्रवण, मनन एवं चिन्तन रहता है; उसमें यही साधन और यही फल है।

१८-सत्कुलताका क्या अर्थ है? जिस कुलके लोग संसारसे मुक्त हों, जिस कुलमें शास्त्रोंकी मर्यादाका पालन होता हो, जो कुल मोक्षकी ओर जानेवाले लोगोंसे युक्त हो सत्कुलमें जन्म होना, शास्त्रका अध्ययन करना और तपपरायण होना - ये मोक्षकी तीन सीढ़ियाँ हैं।

१९-श्रीभगवान्‌के चरणोंकी शरण होनेपर फिर विद्या, तप, कुल आदिकी भी आवश्यकता नहीं रहती। जो श्रीगोविन्द चरणाश्रित न होकर मोक्ष प्राप्त करना चाहते हैं, उनके लिये कुल, शास्त्राध्ययन एवं तपकी आवश्यकता होती है (और उसमें भी यह निश्चय नहीं कि वे अपने प्रयत्नमें सफल हो ही जायें)।

२०-जो सती पतिपरायण है, वह श्रृंगार आदिसे रहित भी हो तो भी पति उसकी सेवासे प्रसन्न होकर उससे प्रेम करता है। ऐसे ही जो भक्त भगवान्‌की सेवामें रहते हैं, उनके लिये कुल, तप आदि बाहरी गुणोंकी आवश्यकता नहीं है। उनकी विशुद्ध सेवासे ही प्रसन्न होकर भगवान् उनपर कृपा करते हैं।