अज्ञानी मनुष्य ही अभिमान का गुलाम है; बुद्धिमान् तो विनयी होता है।

The ignorant man is the slave of pride; The wise man is humble.

SPRITUALITY

आदरणीय परम पूज्य श्री हनुमानप्रसाद पोद्दार जी की लाभदायक पुस्तक 'सत्संग के बिखरे मोती '

1/22/20251 min read

६०-अज्ञानी मनुष्य ही अभिमान का गुलाम है; बुद्धिमान् तो विनयी होता है।

६१-अहंकार प्रचण्ड निदाघका मध्याह्न है और विनय वसन्तकी संध्या !

६२-जो कुछ करना चाहते हो, पहलेसे ही उसका ढिंढोरा मत पीटो ! काम होनेपर आप ही सब जान जायँगे।

६३-जिसके कार्यसे हरि संतुष्ट होते हैं, असलमें वही सत्-कर्मी है।

६४-तुमने जो कुछ शुभ किया है, उसे भगवान्ने देखा ही है; फिर

अपने मुँहसे उसकी बड़ाई क्यों बघारते हो।

६५-सुख चाहते हो तो दूसरोंको सुख दो और दुःख चाहते हो तो दुःखका दान करो। जो दोगे, वही अनन्तगुना होकर तुम्हें वापस मिल जायगा।

६६-रोग-वियोगसे घबराओ मत। सभी लीलाओंमें प्रियतम प्रभुकी मधुर हँसीका दर्शन करो और सदा सुखी रहो।

६७-ऐसा मत मानो कि मैं अपनी साधनासे- अपने परिश्रम- पुरुषार्थके बलसे संसार-सागरसे तर जाऊँगा। इस प्रकारकी धारणामें अभिमानका बड़ा भय है। भगवान्‌की असीम अनुकम्पापर विश्वास रखो, उनका आश्रय ग्रहण करो और साधन-भजन उन्हींकी प्रीतिके लिये करो। फिर कोई शंका या भय नहीं है।

६८-जिस साधकमें अभिमान है- अपनेमें उच्चबुद्धि और दूसरोंके

प्रति नीचबुद्धि है, वह साधक नहीं है। पर एक पापी, जो पापसे छुटकारा पानेके लिये छटपटाता है और प्रतिक्षण भगवान्से प्रार्थना करता है, सच्चा साधक है।

६९-पापसे मुक्त होनेका साधन है - तीव्र अनुताप। यह अनुताप ही भगवत्-साधनका पूर्वरूप है। अनुताप हुए बिना असली साधनाका उदय नहीं होता।

७०- भगवान् नित्य कल्याणमय और कृपामय हैं। वे अपनी सहज करुणा-स्वभावसुलभ विरदसे चाहे जिसको, चाहे जब, चाहे जैसा महत्त्व और विशेषत्व प्रदान कर देते हैं। 'मसकहि करइ बिरंचि प्रभु'

७९-ऐसा करनेमें कोई हेतु नहीं है, उनकी स्वरूपभूता कृपा और कल्याणमयतासे अपने-आप ही ऐसा हुआ करता है।

७२-किसी दूसरेका न तो दोष देखो; न कभी किसीकी निन्दा करो। संसारमें निर्दोष कौन है! पहले यह देखो कि तुम्हारे अन्दर कोई दोष है या नहीं। यदि है तो पहले उससे घृणा करो, उसके लिये अनुताप करो।

७३-दूसरेको सुधारनेकी चिन्ता मत करो, अपनेको सुधारो। जब तुम निर्दोष हो जाओगे, तब सारा जगत् ही तुमको निर्दोष दीखने लगेगा। ७४-पर-दोष देखनेकी आदत पड़ जानेपर सर्वथा निर्दोषमें भी दोष

दीखने लगते हैं। असलमें वह अपने दोषोंकी ही छायामूर्ति है।

७५-आनन्द और शान्ति ही जीवन है और निरानन्द तथा अशान्ति ही मृत्यु है। जीवनको अपनाओ, मृत्युको नहीं।

७६-आनन्द और शान्ति प्रेमसे मिलते हैं, द्वेषसे नहीं। प्रेम पवित्र, मधुर, नित्य, प्रतिक्षण वर्धमान और आनन्दमय है। प्रेम ही जीवनका सच्चा जीवन है। जहाँ प्रेम है वहीं आनन्द है।

७७-सत् और चित्के साथ ही आनन्दका संयोग है। सच्चिदानन्द हैं भगवान्। इसीलिये भगवान् ही आनन्दनिकेतन और आनन्दस्वरूप हैं। ७८-सच्चा साधु वही है, जिसके मनमें भगवच्चिन्ताके सिवा अन्य कोई चिन्ता कभी आती ही नहीं।

७९-बाहरका एकान्त सच्चा एकान्त नहीं है। मनकी संकल्पशून्यता ही एकान्त है।

८०-जीभका मौन ही सच्चा मौन नहीं है। मनको मौनी बनाओ, वही सच्चा मौन है।

८१-मनका मौन है-जगत्-चिन्तनका सर्वथा अभाव और भगवान्का नित्य मनन ।

८२-मनुष्यमें ऐसा कोई भी गुरुत्व नहीं है, जिसके लिये वह गौरव करे। गौरव करनेकी कोई बात है तो वह भगवान्‌के गौरवसे ही है।

८३-जबतक मनुष्य अपने मिथ्या गौरवका त्याग नहीं करता, तबतक उसमें सच्चे गौरवकी कोई बात आती ही नहीं।

८४-भगवान् ही जीवमात्रमें स्थित हैं, भगवान् ही सबके अधिष्ठान हैं, भगवान् ही सबके आत्मा हैं- यह समझकर भगवान्‌की सेवाके भावसे जो जीवोंकी सेवा करता है, उसका प्रत्येक कार्य भगवद्भजन ही है।

८५-सेवक किस बातका और कैसे अभिमान करे। वह तो स्वामीके संकेतपर, स्वामीकी शक्तिसे ही नाचता है।

८६-जो सच्चा सेवक है, वह जिधर देखता है, उधर ही उसे अपने करुणामय स्वामीका मुसकराता हुआ मुखड़ा दीखता है।

८७-सेवकका कार्य है- नम्रता और विनयके साथ स्वामीकी सेवा करना। जब घट-घटमें उसे अपने स्वामीके ही दर्शन होते हैं, तब वह नम्रता और विनयका त्याग करके अभिमान कैसे करे ?

८८-सेवक तो सदा यही चाहता है कि मैं नरम नरम धूलिकण ही बना रहूँ, जिससे स्वामीका चरणस्पर्श सदा मिलता रहे। इसीमें सेवकका गौरव है।

८९-जो अपनेको सेवक भी मानता है और अभिमान भी करता है, वह सेवक नहीं-ठगाया हुआ है।

९०-साधनाकी जड़ है विश्वास और श्रद्धा। जिसमें विश्वास और श्रद्धा नहीं है, वह महापुरुषोंका अनुकरण करके भी कोरा ही रहता है।

९१-विश्वास और श्रद्धा ही अप्रकट भगवान्‌को प्रकट करवाते हैं। प्रह्लादके अटल विश्वासने ही भगवान् नृसिंहदेवको खंभेसे प्रकट किया था।

९२-विश्वाससे साक्षात्कार, विनयसे उन्नति, सत्यसे समता, प्रेमसे आनन्द, धैर्यसे शान्ति, वैराग्यसे ज्ञान, समर्पणसे भक्ति और निर्भरतासे भगवत्कृपा प्राप्त होती है।

९३-भगवान्में विश्वास न करनेवाले, मिथ्यावादी, कृपण और निर्दय-इन चारोंका संग महान् अनिष्टकी उत्पत्ति करता है।

९४-मौतको सोते समय सिरहाने और जागते समय सामने समझकर काम करो।

९५-मौतसे डरो मतः परन्तु वह तुम्हारा आलिंगन करे, इस पहले-पहले ही अपने कामको पूरा कर लो।

९६-छोटे-से-छोटे पापके प्रति भी ध्यान रखो और उसे निकालनेक चेष्टा करो। पापको सहना और उसपर दया करना भी बड़ा

९७- पापका बीज ही बुरा है। बीज रहेगा तो अनुकूल अवस पाप है पाकर अंकुर निकलेगा ही।

कर बस, तुम तो भगवान्के बन जाओ और कुछ भी मत को भगवान्‌को छोड़कर कुछ भी करने जाना अपनेको विपत्तिके जागा फँसाना है।

९९-काम आरम्भ करते ही उसके फलके लिये चिन्ति म होओ। बीज डालते रहो, समयपर अंकुर प्रकट होगा ही।

१००-कर्मसे भावका पद ऊँचा है। भाव पवित्र होनेपर तुच्छ-से. तुच्छ कर्म भी महान् बन जाता है।

१०१-तुम्हारी जैसी कामना होगी, वैसे ही कर्म होंगे औ

कर्मानुसार ही उनका फल भी मिलेगा। १०२-तुम्हारी इच्छा यदि शुभ है तो भगवान् उसका फल शुष देंगे ही-यह निर्भान्त सत्य है।

१०३-भगवान्‌का साक्षात्कार ही चरम और शुभ है।

१०४-भगवद्दर्शन, भगवत्प्रेम और भगवद्बोधकी कामना वस्तु कामना नहीं है।

१०५-अपने सारे कार्य भगवान्‌की सेवा समझकर करते रहो। फिर परम सत्यस्वरूप भगवत्-प्रकाशकी निर्मल ज्योतिसे तुम्हा हृदय चमक उठेगा। तुम्हारी किसी चेष्टाके बिना ही तुम्हारे अनजानेने

ही तुम्हारा ज्ञान सत्यके प्रकाशसे प्रकाशित हो जायगा। १०६-भक्ति और सेवामें आडम्बर व्यर्थ है। जहाँ निर्बाध और

सम्पूर्ण आत्मनिवेदन नहीं है, वहाँ सेवाके निर्मल स्वरूपका प्रकाश नहीं होता। वहाँ तो बाहरी दिखावा ही रहेगा।

१०७-तुम जिसकी सेवा करना चाहते हो, तुम्हारा मन तो पड़ा रहेगा सदा उसके पास। फिर बिना मनके आडम्बर कैसे बनेगा।

१०८-किसी कामनासे भगवान्में प्रेम करना असली प्रेम नहीं है। वे तुम्हारे हैं, तुम उनके हो। 'प्रेम क्यों करते हो?' 'इसलिये कि रहा नहीं जाता।' 'कोई कारण भी होगा?' 'कारणका पता नहीं।' बस, यही असली प्रेम है