शरणागति का स्वरूप और शाश्वती शान्ति को प्राप्त पुरुष की स्थिति

The nature of surrender and the state of a person who has attained eternal peace

SPRITUALITY

आदरणीय परम पूज्य श्री हनुमानप्रसाद पोद्दार जी की लाभदायक पुस्तक 'सत्संग के बिखरे मोती '

2/11/20251 min read

७२-सकामभावकी अर्थार्थी भक्ति भी बहुत ऊँची और कठिन है। उससे भी हमारे प्रत्येक कर्मका फल मिल सकता है और फलस्वरूप भगवान्‌की प्राप्ति हो जाती है। भगवान् ही ढूँढ़ते हैं कि उसका अभाव क्या है। निर्भरशील बालकको अपनी बीमारीका क्लेश है, पर उसका कष्ट तो उससे भी अधिक माँको है। अबोध बालकके कल्याण तथा हितकी परम चिन्ता केवल माँको ही है। बालक तो स्वयं उस सम्बन्धमें निर्द्वन्द्व है ही।

७३-क्षेमका अर्थ यह नहीं है कि जो कुछ हम चाहते हैं, वही हो। उसका अभिप्राय यह है कि हमारे कल्याणके लिये जो उपयुक्त हो, वही हो। भगवान्के निर्भरशील भक्तका क्षेम भगवान् निभाते हैं- स्वयं भगवान् वहन करते हैं। जिस वस्तुमें उसका वास्तविक हित अथवा कल्याण होगा, यदि उसके पास वह है तो उसकी वे रक्षा करेंगे और यदि उससे उसके कुशलका नाश होनेवाला होगा तो स्वयं भगवान् उसका नाश कर देंगे। क्षेमका यह भी अर्थ नहीं है कि जो कुछ हमारे पास है, वह रहे ही। जो हमारे वास्तविक मंगलका विरोधी होगा, उसका अन्त हमारी परम कल्याणकारिणी परम दयामयी माँ कर ही देगी। भगवान् अपने भक्तकी चिन्ता ठीक वैसी ही करते हैं जैसे एक माँ अपने अबोध दुधमुँह बच्चेकी।

७४-प्रपत्ति-साधनामें प्रारम्भसे ही प्रभुके चरणोंका अनन्य एकान्त आश्रय रहता है। इसमें साधनावस्थामें भी परतन्त्रता है और सिद्धावस्थामें भी। प्रभुपर यह इच्छा कैसे प्रकट की जाय कि 'मुझे यह चाहिये, ऐसा कर दो।' यह तो साधनामें कलंक लगाना है। शरणागति, प्रपत्ति अथवा निर्भरतामें तो साधन अथवा ध्येय दोनोंके लिये प्रभुका ही एकमात्र आश्रय होता है, भगवान्‌के आश्रयके सिवा न अन्य कुछ साधन है न फल ही। यह परतन्त्रता बड़ी प्यारी, बड़ी मीठी होती है।

७५-सेवक हो कठपुतली-जैसा। वह चाहे जो नाच नचावे, सहर्ष नाचना। यह वास्तवमें बड़े भाग्यकी बात है कि भगवान् हमें अपने हाथका खिलौना बना लें। जहाँ निर्भरता होती है, वहाँ भगवान्‌की ही बाह होती है। अपने तो सर्वथा निश्चेष्ट होकर भगवान्के चरणोंम गी गये, बस ! अब कब, क्या, क्यों-सब कुछ भगवान् ही जानें।

शरणागति का स्वरूप

७६-आपका पहला प्रश्न है-ईश्वरकी शरणमें जाना कैसे बनता है? इसका उत्तर यह है कि सब प्रकारसे अपने सर्वस्वको-तन, मन, धन, कामना, वासना, बुद्धि, अहंकार- सबको, सब प्रकारसे भगवान्‌में अर्पण करनेसे शरणागति बनती है।

७७-शरणागतिके प्रारम्भिक साधन हैं-१. भगवान्के अनुकूल ही सब कार्य (तन, मन, वाणीसे) करनेका दृढ़ निश्चय, २. भगवान्‌के प्रतिकूल समस्त कार्यों और भावोंका (तन, मन, वाणीसे) सर्वथा त्याग, ३. भगवान्में ही परम विश्वासकी चेष्टा, ४. भगवान्‌को ही अपना एकमात्र रक्षक, प्रभु, प्रेमास्पद, गति, आश्रय, ध्येय और लक्ष्य मानना, ५. भगवान्के लिये ही सब कार्य करना, सब कार्योंके होनेमें अपने पुरुषार्थको कुछ भी न मानकर उन्हें भगवान्‌की ही शक्तिके द्वारा होते हुए समझना और ६. सब कुछ भगवान्‌को अर्पण करनेकी चेष्टा करना।

७८-इस प्रकार अभ्यास करते-करते चार भाव हृदयमें प्रकट होते हैं और उन्हींके द्वारा क्रिया होने लगती है। वे चार हैं-१. भगवान्‌का परम प्रेमके साथ निरन्तर चिन्तन और तज्जन्य पल-पलमें परमानन्दका अनुभव, २. भगवान्‌के अनुकूल ही सब कार्य करनेका स्वभाव, ३. भगवान्के प्रत्येक विधानमें (सुख-दुःख, हानि-लाभ-सबमें) परमानन्दकी अनुभूति और ४. सर्वथा निष्कामभाव यानी कामनाका सर्वथा अभाव। इसी अवस्थामें परम शान्ति - शाश्वत शान्ति मिलती है। यह बड़ी ऊँची दशा है। इस अवस्थामें उस आधारमें स्थित होकर भगवान् ही लीला करते हैं।

शाश्वती शान्ति को प्राप्त पुरुषकी स्थिति

७९-इस प्रश्नका दूसरा भाग है- तीव्रतर वैराग्य आदिके द्वारा शाश्वत शान्ति मिल जानेपर भी अवश्य होनेवाले प्रारब्ध कर्मके मिटानेकी यदि कोई युक्ति होती तो राजा नल, धर्मावतार युधिष्ठिर और मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीरामचन्द्र इत्यादि समर्थ महापुरुष राज्यसे भ्रष्ट होकर क्यों वन-वन फिरकर अनन्त दुःख उठाते। अतः शाश्वत शान्तिवाले ज्ञानीका भी प्रारब्ध कर्म नहीं मिट सकता ऐसा श्रुति कहती है। तब शाश्वत शान्ति मिलना-न-मिलना एक-सा हो गया, अतएव तत्त्वज्ञानसे यथार्थ शान्ति मिलनेपर भी प्रारब्ध कर्मके द्वारा उस शान्तिमें विघ्न हो जाता है या प्रारब्ध कर्मसे उसमें कोई विघ्न नहीं होता ? यदि नहीं होता तो फिर ऐसा पुरुष प्रारब्ध कर्म कैसे भोगता है?

८०-इस प्रश्नके उत्तरमें सबसे पहली बात तो यह कहनी है कि-

अवश्यम्भाविभावानां प्रतीकारो भवेद् यदि।

तदा दुःखैर्न लिप्येरन् नलरामयुधिष्ठिराः ॥

- यह श्लोक श्रुतिका नहीं है और मेरे मतसे यह उचित भी नहीं है; क्योंकि इसमें नल और युधिष्ठिरके साथ ही भगवान् श्रीरामका नाम लिया गया है। यह सिद्धान्त सर्वथा स्मरण रखना चाहिये कि भगवान्‌का अवतार किसी कर्मफलसे नहीं होता। हमलोगोंके देहधारणमें-जन्ममें जैसे प्रारब्ध कारण है, वैसे भगवान्के जन्ममें नहीं है; वे तो अपनी लीलासे ही प्रकट होते हैं। वास्तवमें वह जन्म ही नहीं है। ऐसी बात नहीं है कि वह परम मंगलविग्रह पहले नहीं था; अब माताके उदरमें रक्त-वीर्यके संयोगसे बन गया। वह तो नित्य है और समय-समयपर अपनी लीलासे ही प्रकट होता है। यह प्राकट्य ही उनका जन्म है और फिर लीलाके अनन्तर अन्तर्धान हो जाना ही उनका देहावसान कहा जाता है। वस्तुतः वे जन्म-मृत्युसे रहित हैं, कामकर्मसे अतीत हैं। वे स्वयं कहते हैं-

अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।

प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया ।।

(गीता ४। ६)

मैं सर्वथा अविनाशीस्वरूप और अजन्मा होते हुए भी तथा सब ब्रह्माण्डोंका परम ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृतिद्वारा अपनी योगमायासे - अपनी लीलासे प्रकट होता हूँ।'

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः ।

त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥

(गीता ४।९)

'अर्जुन ! मेरा जन्म और कर्म दिव्य है और जो पुरुष इस जन्म-कर्मके तत्त्वको जान लेता है, वह देह-त्यागके अनन्तर दूसरे जन्मोंको न प्राप्त हो मुझको ही प्राप्त होता है।'

८१-जिनके जन्म-कर्मके तत्त्वको जान लेनेसे ही अपुनर्भव मोक्ष मिल जाता है, उन भगवान्‌को प्रारब्ध कर्मवश वनमें बाध्य होकर कष्ट सहन करना पड़ा-यह कहना अपना अज्ञान ही प्रकट करना है।

८२-भगवान् श्रीरामचन्द्रका युवराजपदपर प्रतिष्ठित न होकर वनमें जाना उनकी दिव्य लीला ही थी, किसी प्रारब्धका भोग नहीं। रहे नल और युधिष्ठिर; सो यदि वे महानुभाव तत्त्वज्ञानी पुरुष थे, तब तो वनमें रहनेपर भी उन्हें वास्तवमें कोई अशान्ति नहीं हुई और यदि तत्त्वज्ञानतक नहीं पहुँचे थे तो यथायोग्य अशान्ति होनेमें कोई आश्चर्य नहीं। इन दोनोंमें भी नलसे युधिष्ठिरका स्तर ऊँचा प्रतीत होता है। कुछ भी हो-इस श्लोकको प्रमाण मानकर शाश्वत शान्तिमें विघ्न मानना सर्वथा अप्रासंगिक है।

८३-इतनी बात अवश्य सत्य है कि प्रारब्ध-कर्मका (सहज ही) प्रतीकार नहीं हो सकता। तत्त्वज्ञानीके संचितका नाश हो जाता है, क्रियमाण भी अहंभावका अभाव तथा सहज निष्कामभाव होनेके कारण भूजे हुए बीजकी भाँति फल उत्पन्न नहीं कर सकता। परन्तु प्रारब्धका बिना भोगे नाश नहीं हो सकता। किसी प्रबल नवीन कर्मके तत्काल संचितोंमेंसे प्रारब्ध बन जानेके कारण फलदानोन्मुख प्रारब्ध रुक जाता है, परन्तु मिट नहीं पाता।