जो श्रीभगवान् और उनके भक्तों का अपमान करते हैं, उन पर कभी भी कृपा नहीं होती।
Those who insult Sri Bhagavan and God's devotees are never blessed.
SPRITUALITY


२१-जो श्रीभगवान् और उनके भक्तोंका अपमान करते हैं, उनपर कभी भी कृपा नहीं होती। श्रीभगवान् और उनके भक्तोंका चरणाश्रय ही जीवको पार करता है। और सच तो यह है कि श्रीभगवद्भक्त-चरणाश्रयके बिना श्रीभगवान्के चरणोंका आश्रय नहीं प्राप्त होता।
२२-भगवान्के भक्तोंकी अवज्ञा करके अथवा उनके साथ सम्बन्ध न रखकर जो भजन करता है, उसका भजन व्यर्थ जाता है।
२३-भक्तिमार्गका साधक बड़ा चौकन्ना रहता है; वह डरता है कि मुझसे कोई अपराध न बन जाय। अतएव उससे ज्ञानकृत (जान-बूझकर किये गये) अपराध नहीं होते। जो ज्ञानके उपासक हैं, उनसे भी जान-बूझकर कोई अपराध नहीं बनते। पर जो लोक-प्रतारणके लिये ज्ञानका दम्भ करते हैं, उनके द्वारा ज्ञानकृत अपराध होते रहते हैं। निरन्तर चौकन्ना रहनेपर भी भक्तके द्वारा अज्ञानकृत अपराध तो बन ही जाते हैं। पर भक्तोंको भगवान्का सहारा होता है। वे भगवान्के आश्रित होते हैं; उन्हें बचानेवाले भगवान् विद्यमान हैं। अतएव अज्ञानकृत अपराधोंसे भगवान् उन्हें मुक्त कर देते हैं।
२४-भगवान्के परम आश्रित जो अनुरागी भक्त हैं उनका मन पाप-पुण्यसे दूर होता है; वे पाप-पुण्यका चिन्तन नहीं करते, वे चिन्तन करते हैं भगवान्का। उनके मनमें सिवा भगवच्चिन्तनके और कुछ होता ही नहीं। अतएव निषिद्ध कर्मोंमें- पापोंमें उसका मन जाता ही नहीं। पर कहीं अनजानमें कोई पाप हो भी जाय तो भगवान् उसे क्षमा कर देते हैं।
२५-वनमें आग लगती है तो पेड़ जल जाते हैं, परंतु उनकी जड़ शेष रह जाती है। ऐसे ही अन्यान्य साधनोंसे जिन पापोंका नाश होता है, वे निर्मूल नहीं होते, उनकी जड़ प्रायः रह जाती है। पर जिन्होंने श्रीभगवान्का चरणाश्रय ले रखा है, उनके पाप समूल नष्ट हो जाते हैं, उनके पुनः अंकुरित होनेका डर नहीं रहता।
२६-भगवान्के चरणोंका आश्रय करनेपर जीवको अनायास मुक्ति मिलती है, पर भगवान्के चरणोंका अनाश्रय करनेपर विभिन्न साधनोंद्वारा सिद्धिके पदपर आरूढ़ होनेपर भी स्खलन - पतन हो जाता है।
२७-भक्तिसे रहित जो ज्ञान या योग है, वह ब्रह्मका साक्षात् तो कराता है, पर उसमें बड़े विघ्न हैं, किंतु भक्तियोग परम स्वतन्त्र है, विघ्नरहित है। इसमें स्वयं भगवान् उसे संसार-सागरसे तुरंत पार ले जाते हैं, क्योंकि इसमें श्रीगोविन्द-चरणोंका आश्रय रहता है। भक्ति निरपेक्ष है। अतएव भक्तिके उपासकको ज्ञान, योग आदिकी आवश्यकता नहीं रहती।
२८-भक्त प्रारम्भसे ही भगवत्कृपाकी डोरीसे बँधे हुए चलते हैं। अतएव जहाँ पैर फिसला कि भगवान्ने डोरी खेंची। इससे भक्त कभी गिरते नहीं।
२९-जो श्रीभगवान्के चरणाश्रित भक्त हैं, उनकी नित्य प्रार्थना होती है कि हमें चरण-सेवा मिलती रहे। अतएव भगवान् अपने स्वभाववश उन्हें अपनी चरण-सेवा ही देते हैं।
३०-भगवान्के चरणोंका आश्रय करके जो भगवान्के हो जाते हैं, वे कभी गिरते नहीं; क्योंकि भगवान् उनकी रक्षा करते हैं। भक्त किसी भी प्रकारके विघ्नसे डरते नहीं, क्योंकि विघ्नोंका नाश करनेवाले भगवान् उनके सहायक हैं। विघ्नोंका सेनापति भी आ जाय तो भी वे विचलित नहीं होते ।
३१-भक्तोंमें निरन्तर दैन्य बढ़ता रहता है। पद-पदपर भगवत्कृपाका अनुभव करते रहनेसे उनमें सरलता बढ़ती है और भगवान्की कृपाको निरन्तर अनुभव करनेकी लालसा बढ़ती है, अतएव वे कभी गिरते नहीं और कहीं गिरते भी हैं तो भगवान् अपने-आप उनको बचाते हैं, उनका निर्वाह करते हैं और उन्हें अपने धाममें ले जाते हैं।
३२-भगवान्की स्वप्रकाशिका शक्ति है विशुद्ध सत्त्व; वही वसुदेव हैं। श्रीभगवान् उसीसे अपनेको प्रकट किया करते हैं।
३३-भगवान्के रूपदर्शनमें उनकी कृपा कारण है, न कि भौतिक प्रकाश। भगवान्की कृपा होनेपर अन्धा मनुष्य भी घने अन्धकारमें भी उनके दर्शन कर सकता है। पर भगवान्की कृपा न होनेपर करोड़ों सूर्योका प्रकाश तथा करोड़ों आँखें प्राप्त होनेपर भी उनका दर्शन नहीं हो सकता।
३४-सारे दुःखोंका आत्यन्तिक नाश हो जाय और परमानन्दकी प्राप्ति हो जाय-यह भगवान्के चरणोंकी कृपा बिना नहीं होता। कर्मफलरूप स्वर्गादिकी प्राप्ति हो सकती है, पर वहाँ दुःखोंका आत्यन्तिक अभाव नहीं होता। इसी प्रकार ब्रह्म-सायुज्यमें जीवोंके दुःखोंका तो आत्यन्तिक नाश हो जाता है, पर उन्हें प्रेममय परमानन्दका भोग नहीं मिलता। श्रीभगवान्के चरणाश्रित भक्त आनन्द-समुद्रसे उठी हुई आनन्द-तरंगोंका उपभोग करते हैं।
३५-भगवान्का श्रीविग्रह क्या है? दिव्य अनन्त आनन्दकी घनीभूत मूर्ति। क्षुद्र विषय-सुखसे लेकर ब्रह्मानन्दतक सब उस घनीभूत आनन्द-समुद्रके बिन्दुकणमात्र हैं।
३६-भक्तोंकी उत्कण्ठासे भगवान् अपनी नित्यसिद्ध मूर्तिको प्रकट करके लीला करते हैं।
३७-जीव अपने दुःखकी गाथा भगवान्के सामने रखना जाने या न जाने, भगवान् उसके लिये जो हित है, वह स्वतः करते रहते हैं। पर जब किसीपर दुःख पड़ता है, तब वह भगवान्के अन्तर्यामी स्वरूपको जानते हुए भी चिल्ला उठता है-' भगवन्! मेरी रक्षा करो।' बस, यहींपर भूल होती है।
३८-भगवान् जगत्में आते हैं- रसास्वादनके लिये, अपने दिव्य आनन्द-रसका स्वयं पान करनेके लिये। अपने सखाओंके द्वारा सख्यरसका, अपने प्रेमियोंद्वारा मधुर रसका और अपने माता-पिता आदिके द्वारा वात्सल्य-रसका- इन रसोंका भगवान् स्वयं आस्वादन करते हैं और अपने माता-पिता-सखा आदिको कराते हैं।
३९-भगवान्का जन्म अलौकिक है। वात्सल्यप्रेममयी कौसल्या या देवकी-यशोदाको इस प्रकारकी प्रतीति होती है कि मेरे पेटमें बालक है तथा गर्भके सब लक्षण भी दीखते हैं। पर वास्तवमें भगवान् न तो जीवकी भाँति गर्भस्थ होते हैं और न माताके खाये हुए अन्नसे उनका शरीर बनता है। जो गर्भस्थ होता है तथा माताके खाये हुए अन्नसे बनता है, वह अविनाशी नहीं होता, न दिव्य ही होता है। पर भगवान्का शरीर तो सच्चिदानन्दस्वरूप है, भगवान् ही है।
०- अन्तर्यामीरूपमें भगवान् सबके हृदयमें हैं, पर प्रेमियोंके हृदयमें वे प्रेमके सम्बन्ध-रूपसे रहते हैं, जैसे वात्सल्य-भाववालेके हृदयमें पुत्ररूपमें, माधुर्य-भाववालेके प्रियतमरूपमें, सख्य-भाववालेके सखारूपमें।
४१-भगवान्के दिव्य मंगलमय स्वरूपका दर्शन किसीको होना, न होना-यह भगवान्की इच्छापर निर्भर है।
४२-मनुष्य भगवान्को देखकर भी अपनी बहिर्मुखताके कारण विपरीत भावको प्राप्त होता है और भगवान्के माधुर्यको नहीं देख पाता। प्रेमी भक्तोंमें भी प्रेमके तारतम्यके अनुसार सानन्द-आस्वादनमें भेद होता है।
४३-श्रीकृष्ण-प्रेमका यह स्वभाव है कि भक्त अपनेको तो भूल जाता है, पर श्रीकृष्णके साथ अपना क्या सम्बन्ध है और उनकी सेवा क्या, कैसे करनी है-यह वह कभी नहीं भूलता।
४४-भगवान्को देखनेकी, पानेकी वासना-कामना जिनके मनमें जाग्रत् हो जाय-वहाँ कोई बन्धन रहता है क्या? बन्धन तभीतक है, जबतक हमारे मनमें जगत्के भोगोंकी वासना है।
४५-दो प्रकारके संसारमें लोग हैं- दीन और अदीन। अधिक लोग दीन हैं; दीनात्मा हैं- यह चाहिये, वह चाहिये, इसकी कमी है, उसकी कमी है-अर्थात् वे जीवनभर अभावका ही अनुभव करते रहते हैं जो कामनावाले हैं, जिनके मनमें तृष्णा है, जो सदा अभावका अनुभव करते हैं, वे दीन हैं। वे सदा दुःखी रहते हैं। दूसरी श्रेणीकेलोग अदीन हैं, जिनको कभी किसी वस्तुकी अपेक्षा नहीं रहती, ऐसे अदीन वे हैं जो सदा भगवान्के भावमें तन्मय रहते हैं, जिन्हें कभी भी अभावका बोध होता ही नहीं।