जो भुक्ति , मुक्ति तथा सिद्धिके लिये भगवान्के पास आना चाहते हैं, वे निकट होते हुए भी अत्यन्त दूर हैं

Those who want to come to God for Consumption of objects, liberation and accomplishment, are very far away even though they are close.

SPRITUALITY

आदरणीय परम पूज्य श्री हनुमानप्रसाद पोद्दार जी की लाभदायक पुस्तक 'सत्संग के बिखरे मोती '

1/26/20251 min read

१७-जीवकी तुच्छशक्तिके काँटेपर जब हम भगवान्की क्रियाओं तौलने जाते हैं, तब विफल ही होते हैं। पर यदि अपनी शक्तिको भूलकर श्रीकृष्णकी अचिन्त्य शक्तिकी ओर ध्यान दें तो हमें मालूम होगा कि उनकी अचिन्त्य शक्तिके लिये कुछ भी असम्भव नहीं है।

१८-भक्तवत्सल भगवान् अपने भक्तको इतना प्यार करते हैं कि भक्तके लिये विपत्ति, लेश-कण-सम्भावनासे ही वे अनन्तशक्तिसम्पन्न और नित्य परमानन्दस्वरूप होते हुए भी शक्तिरहित, अत्यन्त व्याकुल सजलनयन, हताश, निर्वाक्, निःस्पन्द, व्यग्र, निरानन्द हो जाते हैं; चिन्तामणि चिन्तासागरमें डूब जाते हैं। वे इतने व्याकुल हो जाते हैं कि उन्हें कोई उपायतक नहीं सूझता। वे किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते हैं। भक्त-रक्षाके लिये यदि भगवान्में वास्तवमें व्यग्रता प्रकट न हो तो यह दम्भ होता है, कपट होता है, पर भगवान्में ऐसी बात नहीं। वे वास्तवमें व्यग्रताका रसास्वादन करते हैं। वे कुछ क्षणोंके लिये अज्ञ बनकर विज्ञसमाजमें अपनी भक्तवत्सलताका उज्ज्वल दृष्टान्त प्रकट करते हैं। भगवान्‌की भक्तवत्सलताके व्यवहारकी गम्भीरता देवताओंकी भी समझमें नहीं आती। वे भी उस समय अनिष्टकी आशंकासे 'हाय ! हाय!!' चिल्लाते हैं।

१९-जो भुक्ति (विषयोपभोग या लौकिक सुख.), मुक्ति तथा सिद्धिके लिये भगवान्के पास आना चाहते हैं, वे निकट होते हुए भी अत्यन्त दूर हैं। पर जो भुक्ति, मुक्ति एवं सिद्धिका त्याग करके केवल श्रीकृष्ण-सेवाके लिये ही उनके पास आना चाहते हैं, वे अत्यन्त दूर रहते हुए भी निकट हैं। सब वस्तुओंको छोड़कर केवल श्रीकृष्ण-सेवाको ही चाहना निष्काम उत्कण्ठा है। इस निष्काम उत्कण्ठा तथा तज्जनित श्रीकृष्ण-कृपासे वे भगवान्‌के पास तत्काल पहुँच जाते हैं।

२०-जिस प्रकार भगवान् अपनी मायाशक्तिसे जीवोंको बाँधते हैं और कृपाशक्तिसे उनका बन्धन मुक्त कर देते हैं, उसी प्रकार प्रेमी भक्त भी अपने प्रेम-क्रोधसे भगवान्‌को बन्धनमें ले लेते हैं और अपने प्रेमानुग्रहसे उनको मुक्त कर देते हैं।

२१-श्रीकृष्णकृपा ही जीवनका एकमात्र बल है। उसके लिये कुछ भी असाध्य नहीं। जो श्रीकृष्णकी कृपासे वंचित रहते हैं, वे यदि करोड़ों वर्षोंतक साधना करते रहें तो भी दुस्तर संसार सागरसे पार नहीं हो सकते। संसार-सागरसे पार होनेका एकमात्र उपाय है श्रीकृष्णकी कृपा, उनके चरणोंका आश्रय।

२२-लीलामयके लीला-सिद्धान्तको समझनेके लिये लीलामयके चरणोंकी शरण लेनी चाहिये। जो अपनी विद्या और अपनी शक्तिके बलपर उनको समझना चाहता है, जानना चाहता है, वह न तो भगवान्‌को समझ ही सकता है और न जान ही सकता है। वह असली वस्तुको जान नहीं सकता और उसमें अपनी मायिक बुद्धिसे, मायिक समझसे प्राकृतभाव घर कर बैठता है। ××××× भगवान्‌की लीलाको समझनेके लिये भगवान्‌की कृपापर भरोसा करना, अचिन्त्य महाशक्तिकी शरण लेना तथा श्रीकृष्णके चरणोंका आश्रय ग्रहण करना चाहिये, नहीं तो विपरीत धारणा हो जाती है, विश्वास नहीं होता और उस लीलामें रूपक, कल्पना, दृष्टान्त, प्रक्षिप्तता आदि दोषबुद्धि आ जाती है। इस प्रकार हम लीलाकथा सुनकर अविश्वास करके नाना प्रकारके अपराध कर बैठते हैं। हमारे पापके साथ-साथ वक्ताको भी पापका भागी होना पड़ता है। जो श्रीकृष्णलीलामें जरा भी अविश्वास करते हों, जो अपनी विद्वत्ताके कारण उसे रूपक, कल्पना आदि बताते हों, उनके सामने लीला-कथा नहीं कहनी चाहिये। श्रीकृष्ण लीला उन्हींके सामने कहनी चाहिये जो तर्कके स्थानपर विश्वास रखते हों तथा जो श्रद्धापूर्वक लीलाकथा सुनना चाहते हों। भगवान्‌की लीला अत्यन्त गुह्य है।

२३-श्रीकृष्णका ऐश्वर्य तो सर्वत्र व्याप्त है, उसे देखनेके लिये प्रयास नहीं करना पड़ता। पर उनका माधुर्य बड़ा गोपनीय है; उसका प्रकाश उनकी कृपाके बिना नहीं हो सकता। उनका माधुर्य तो उनकी मुग्धतामें ही है। वे जब बहुत बड़े होकर भी बहुत छोटे बनते हैं, ज्ञानमय होकर भी अज्ञ बनते हैं, प्रेमी भक्तोंके साथ मिलन एवं विरह की लीला करते हैं, उस समय उनका माधुर्य-सिन्धु उमड़ता है और उसमें ऐसी बाढ़ आती है, जिससे सारा जगत् आप्लावित हो जाता है।

२४-व्रजकी गोपियाँ वात्सल्य और मधुर प्रेमकी कल्पलताएँ हैं, जो कृष्णरूपी कल्पवृक्षसे नित्य लिपटी रहती हैं।

२५-सचमुच जिनका मन श्रीकृष्णको प्राप्त करनेके लिये व्यग्र हो जाता है, जो श्रीकृष्णको पानेके लिये पागल हो जाते हैं और उनकी ओर दौड़ पड़ते हैं, जिनमें श्रीकृष्ण-प्राप्तिकी लालसा आत्यन्तिक रूपसे जाग्रत् हो जाती है, वे पथ-अपथ क्या देखते हैं? वे कब हिसाब लगाते हैं कि इस रास्तेमें कितना क्लेश है। उनको कौन रोक सकता है? उनकी उद्दामगतिमें कौन बाधक हो सकता है? उनको कोई दुःख रोक नहीं सकता। दुःख उनके ध्यानमें आता ही नहीं; स्त्री-पुत्र, धन-मान, कीर्ति आदिकी लालसा उनको मोहित नहीं कर सकती। हजारों, लाखों दुःखोंको भी वे दुःख नहीं मानते।

२६-भगवान् श्रीकृष्ण अतर्क्स हैं। उनके स्वरूपका, ऐश्वर्यका, माधुर्यका तर्कसे अनुमान नहीं हो सकता। तर्कके लिये किसी दृष्टान्तकी आवश्यकता होती है, पर भगवान्के लिये कोई दृष्टान्त लागू नहीं होता। भगवान्‌का ऐश्वर्य, माधुर्य स्वरूप भगवान्के लिये ही सम्भव है, अतएव दृष्टान्त-विहीन-जिनके लिये कोई दृष्टान्त सम्भव ही नहीं- के विषयमें तर्क आदि करनेकी सम्भावना ही नहीं है।

२७-श्रीभगवान् स्वप्रकाश परमानन्दस्वरूप हैं। वे अपनी कृपाशक्तिसे जिनके गोचर होना चाहते हैं, केवल वे ही उन्हें देख सकते हैं। चक्षु आदि कोई प्राकृत इन्द्रिय उनका प्रकाश नहीं कर सकती। मायिक आदि चक्षुसे केवल मायिक वस्तुओंका ही दर्शन हो सकता है।

२८-श्रीकृष्णके स्वरूपको, श्रीकृष्णके ऐश्वर्यको, श्रीकृष्णके माधुर्यको ग्रहण करनेकी शक्ति किसीमें नहीं है। जिसपर भगवान् कृपा करते हैं, वे ही उन्हें देख सकते हैं, जान सकते हैं। यदि भगवान् कृपा न करें तो कोई भी अपनी शक्तिसे न उन्हें देख सकता है और न जान ही सकता है। भगवान् जब कृपापूर्वक किसीकी माया-अन्धता दूर कर देते हैं, तभी वह पुरुष उन्हें जान सकता है, देख सकता है।

२९-भगवान्‌के चरणोंका आश्रय ही जीवनका चरम लक्ष्य है और वही परम आश्रय है।

३०-जीवका परम पुरुषार्थ क्या है? भगवान्‌की प्राप्ति। जबतक उसे भगवान्‌की प्राप्ति न होगी, वह सुखी होगा ही नहीं। जीव अनादिकालसे अविद्यासे बँधा है। अतः वह स्वप्रकाशको छोड़कर अविद्याकी ओर दौड़ता है। जैसे नींदमें सोया हुआ आदमी स्वप्नमें देखता है-'जगा हुआ हूँ,' उसी प्रकार अविद्यामें फँसे हुए जीव अपनेको जगा हुआ मानते हैं। यह भी अविद्याका एक स्वरूप है।

३१-जीवनमें जहाँ कृत्रिमता है, वहाँ हम भगवान्‌को धोखा देना चाहते हैं। भगवान् कभी धोखा खाते नहीं, अतः हम ही धोखा खा जाते हैं।

३२-एक मौत है हमें मारनेवाली और एक मौत है मौतको मारनेवाली। मौतको मारनेवाली मौत कौन-सी है? भगवान्‌को स्मरण करते हुए मौतका प्राप्त होना। भक्तोंके सामने जो मौत आती है, वह मरनेको ही आती है-चाहे आवे मारनेको ।

३३-विजातीय बातोंको हम ग्रहण नहीं करते। किसी व्यक्तिमें यदि क्रोधका भाव नहीं है तो कोई दूसरा मनुष्य उसके सामने या उसपर क्रोध करे तो उसमें क्रोध उत्पन्न नहीं हो सकता। क्रोध तभी उत्पन्न होता है, जब क्रोधका बीज पहलेसे हृदयमें विद्यमान रहता है।

३४-प्रतिध्वनि ध्वनिके अनुकूल होती है। दूसरोंसे हम वही प्राप्त करते हैं, जो कुछ दूसरोंको देते हैं वही उसका प्रतिरूप होता है।

३५-हिंसक मनुष्य अपनी हिंसाके पापसे नष्ट हो जाते हैं और साधु अपनी साधुताके कारण सब पापोंसे मुक्त हो जाते हैं। अपनेमें साधुता ठीक-ठिकानेसे बनी रहे तो कोई भी हिंसापरायण व्यक्ति, चाहे उसमें बल दीखे, कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता। ऐसा नहीं मानना चाहिये कि साधुता नीची चीज है; ऊँची यही है और यही बचाती है।