जबतक भगवान् के नाम में स्वाभाविकता नहीं आ जाती, तबतक उसके लेनेमें थकावट मालूम होती है।

Till the time God's name becomes natural, one feels tired in taking it.

SPRITUALITY

आदरणीय परम पूज्य श्री हनुमानप्रसाद पोद्दार जी की लाभदायक पुस्तक 'सत्संग के बिखरे मोती '

2/4/20251 min read

३५-जबतक भगवान् के नाम में स्वाभाविकता नहीं आ जाती, तबतक उसके लेनेमें थकावट मालूम होती है। उसकी गिनती देखनेकी इच्छा होती है। पर मनुष्य जो श्वास लेता है, उसकी क्या वह कभी गिनती करता है? वह तो स्वाभाविक रूपसे आता रहता है। कहीं क्षणभरको न आवे तो जी घुटने लगता है। इसी प्रकार भजन स्वाभाविक हो जाय - अपने-आप भजन होता रहे और न होनेमें परम व्याकुल हो (तद्विस्मरणे परमव्याकुलता)।

३६-उत्तम साधकोंके द्वारा भजन स्वाभाविक होता है। इसलिये यदि उन्हें भजन छोड़नेको कहा भी जाय तो वे उसे छोड़ नहीं सकते। भजन तो उनके जीवनगत हो गया। जबतक स्वाभाविक न हो, तबतक अवश्य ही अभ्यास करना चाहिये। ज्यों-ज्यों अन्तःकरण शुद्ध होगा, त्यों-ही-त्यों भजन स्वाभाविक होगा और उसमें रसानुभव होगा।

३७-भजनमें रसानुभूति होनेपर वह विशेष प्रिय हो जाता है। स्वाभाविकता एवं रसानुभूति-ये दो चीजें जब भजनमें आ जाती हैं, फिर तो वह छूटती नहीं। रसानुभूति भी करते-करते होती है। भोग भोगनेके पश्चात् नीरसता आ जाती है, पर भजन यदि असली हुआ तो उसमें कभी नीरसता नहीं आती, उत्तरोत्तर उसका रस बढ़ता रहता है और साथ ही आस्वादनकी आकांक्षा भी बढ़ती है। 'भजनकी भूख मिटती नहीं भजनसे !' एक जीभसे क्या भजन हो, 'कोटि-कोटि रसना होय तब कछु रस आवै।' आदि बातें कविकल्पना नहीं हैं, सत्य तथ्य हैं। तृप्ति कभी होती नहीं प्रतिक्षण प्यास बढ़‌ती है (प्रतिक्षणवर्धमानम्) -यही स्वरूप है प्रेमका।

३८-उत्तम साधक अपनी साधनामें विघ्न सहन नहीं कर सकता। जिन लोगोंको धन प्रिय है, वे एक पैसेकी भी हानि सहन नहीं कर सकते। एक पैसा भी खो जानेमें मनमें पश्चात्ताप होता है। इसी प्रकार उत्तम साधक साधन-सम्पत्तिकी रक्षा करनेके लिये सहज ही सदा व्यग्र रहते हैं। साधन-सम्पत्ति किसी प्रकार कम न हो, निरन्तर बढ़ती जाय। साधनामें लोभ हो जाय, जरा-सा भी उसकी हानि सहन न हो।

३९-जगत्में सबसे बड़ा पाप है 'भगवद्विस्मरण' और सबसे महत्त्वपूर्ण पुण्य है- 'भगवच्चिन्तन।' गीतामें जहाँ-जहाँ भगवान्ने प्रतिज्ञा की है, वहाँ-वहाँ चिन्तनपर जोर दिया है। सब कालमें स्मरण करनेका अभ्यास बहुत बड़ी चीज है। भगवान्‌के नामका स्मरण, रूप-लीला आदिका स्मरण सभी एक वस्तु है; क्योंकि भगवान्‌का नाम, रूप, लीला, धाम-सभी चिन्मय भगवान्से अभिन्न तत्त्व हैं।

४०-जहाँ ममता होती है, वहाँ आसक्ति होती है और सभी जगह ममत्वका त्याग आवश्यक होता है, पर भगवान्में ममत्व करना चाहिये। भगवान्में आसक्तिका नाम 'प्रेम' है, और जगत्में आसक्तिका नाम 'काम' है। जगत्‌की आसक्ति नरकोंमें ले जायगी और भगवान्‌की आसक्ति संसार-सागरसे तारकर नित्य भगवत्सेवामें नियुक्त कर देगी। भगवान्‌का विस्मरण जो सहन हो रहा है, इसमें हेतु है आसक्तिका न होना।

४१-प्रेमका यह एक अंग है- प्रियतमके वियोगकी आशंकामें चित्तका व्याकुल हो जाना। ममत्वकी वस्तुका वियोग सहन नहीं होता। भगवान्में हमारा ममत्व हो जाय तो सब काम बन जाय, फिर उनका वियोग कभी हम सहन नहीं कर सकेंगे ! श्रीतुलसीदासजीने-

४२-जननी जनक बंधु सुत दारा। तनु धनु भवन सुहृद परिवारा॥

सब कै ममता ताग बटोरी । मम पद मनहि बाँध बरि डोरी ॥

- बड़ी सुन्दर बात कही है। जननी आदिमें- सबमें हमारी ममताके सूत्र बंधे हुए हैं। 'यह मेरा, यह मेरा'- हमारा रोम-रोम ममतास वाके है। तो कहते हैं एक काम करो-ममताके सब सूतोंको सब जगहो तोड़कर बटोर लो एक जगह और उसकी एक मजबूत डोरी बट लो तथा भगवान्‌के चरणारविन्दसे अपने मनको इस डोरीसे बाँध लो अर्थात् भगवान्‌के चरणोंके अतिरिक्त कोई वस्तु अपनी न रहे। इससे क्या होगा, भगवान् अपने हो जायेंगे। भगवान्ने अपने बँधनेकी यह सुन्दर युक्ति बतायी है। कहा तो है अपने मनको बाँधे, पर बन्धन तो परस्पर होता है, अतः यदि भक्तका मन बँधा तो भगवान्‌के चरण भी बँध गये। जिसके चरणमें बन्धन पड़ा हो, वह चलने लगे तो गिर जाय। भगवान् कितने कृपालु हैं, अपने चरणोंको बाँधनेका उपाय भी बता दिया। सचमुच 'अनन्य ममता' ही भक्ति है।

४३-प्रेम और आनन्द साथ रहते हैं, कभी इनका विछोह नहीं होता। अपने प्रियतमकी प्रत्येक वस्तु प्रिय होती है, कहीं फटी जूती भी देखनेको मिल जाय तो मनमें प्रेमका भाव उदित होकर आनन्द उत्पन्न कर देता है। जब भगवान्में प्रेम होगा, तब उनके स्मरणमें रसानुभूति होगी; फिर स्मरणको हम छोड़ नहीं सकेंगे। भगवान्‌का सौंदर्य, माधुर्य प्रेम आदि निरन्तर बढ़ता रहता है, उसमें आनन्द-ही-आनन्दकी बाढ़ है।

४४-दुःखका मूल ममता है। जगत्में सदा कितने आदमी मरते हैं-बड़े-बड़े सुन्दर सुयोग्य व्यक्ति मरते हैं, हम कितनोंके लिये रोते हैं। पर हमारे घरमें किसीकी मौत हो जाय तो उसके लिये हम खूब रोते हैं, क्योंकि उसमें हमारी ममता है। जिसमें ममता नहीं होती, ममतासे विरोधी वैर-भाव हो जाता है तो वहाँ उसे लोग मार देते हैं और उसमें उन्हें सुख मिलता है। संसारके विनाशी पदार्थोंमें हमारी कहीं ममता नहीं होगी तो फिर हमें दुःख होगा ही नहीं।