जाना कहाँ हैं ?

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SPRITUALITY

पुस्तक 'आनंद यात्रा' , लेखक श्री धर्मेन्द्र मोहन सिन्हा

5/6/20251 min read

जाना कहाँ हैं ?

प्र.१) संसार की उथल-पुथल से मन का अशान्त और चंचल होना स्वाभाविक ही लगता है। ऐसे में क्या विचार करें ?

उ.) जो चीज़ स्वाभाविक होती है, उससे मन शान्त और प्रसन्न होकर वहाँ से कभी हटना नहीं चाहता है - यह एक मूल सिद्धान्त है। यह तो सभी का अनुभव है कि मन में चंचलता, क्रोध, ईर्ष्या, घबराहट या किसी भी प्रकार का तनाव न तो शान्ति देता है, न ही प्रसन्न रहने देता है। इसका सीधा अर्थ यह है कि ये सब हमारे स्वभाव के अंग नहीं हैं। इसीलिये हमें ये सब पसन्द नहीं हैं और हम इनसे जल्दी से जल्दी छूटना चाहते हैं। ध्यान से देखा जाय तो हमारी हर चेष्टा के पीछे यही एक भाव रहता है कि कोई ऐसा उपाय मिल जाय जिससे भविष्य का कोई डर न हो, अपने वर्तमान के कर्तव्य को पूरे मनोयोग से भली प्रकार कर सकें और हमारे आस-पास चारों ओर प्रसन्नता, प्रेम और सहयोग का वातावरण बना रहे। अतः जिन

भावों से हमारा मन शान्त रहता है प्रसन्नता, प्रेम, निडरता, एकाग्रता, उत्साह - ये ही सब हमारे स्वभाव के अंग सिद्ध होते हैं, न कि मन की अशान्ति और चंचलता।

प्र.२) यदि हर मनुष्य का स्वभाव ही प्रसन्न, शान्त और एकाग्र है, तो हमें इसका अनुभव हर समय क्यों नहीं हो पाता ?

उ.) इसका अनुभव करने के लिये हमें सबसे पहले यह दृढ़-निश्चय करना होगा कि हम पशु की तरह सुखी-दुःखी होने के लिये विवश नहीं हैं। हम मनुष्य हैं, हमारे पास सोच-विचार करने की शक्ति है। इसी शक्ति के बल पर हम अपने वास्तविक स्वरूप को जानकर उसमें स्थित हो सकते हैं, जो क्रोध, भय आदि विक्षेपों से सर्वथा मुक्त है। मनुष्य और पशु दोनों ही शरीर धारण करते हैं और इसलिये इन दोनों में ही तीन मुख्य आवश्यकताएँ हैं जिनमें सुख का अनुभव होता है - खाना, सोना और सन्तान उत्पन्न करना। परन्तु मनुष्य एक विलक्षण प्राणी है, जिसके पास इनके अतिरिक्त एक अनमोल शक्ति भी है बुद्धि की। यही वह तत्त्व है जिससे मनुष्य की रुचि संगीत, कला, विज्ञान, प्रेम, उत्साह और दक्षता' की ओर आकर्षित होती है। इसी बुद्धि के आधार पर हम यह निश्चय कर पाते हैं कि जो वस्तु हमें खाने में प्रिय लगती है, वह हमारे स्वजन को भी प्रिय लगेगी। इसलिये पहले हम उन्हें खिलायें, फिर स्वयं खायें। इसी बुद्धि की शक्ति से हर मनुष्य यह विचार कर सकता है कि यदि उसे चिन्ता, क्रोध, अभाव, अकेलापन, तनाव, बिखराव अच्छे नहीं लगते, तो फिर ये उसके स्वभाव के अंग नहीं हैं। परन्तु जब मनुष्य जान-बूझकर अपनी बुद्धि का उपयोग अल्पकालिक और पाशविक सुख (भोजन, निद्रा, स्त्री-पुरुष संग) की प्राप्ति में ही लगाये रखता है, तब वह न तो अपने आनन्दमय स्वरूप के बारे में सोच-विचार कर पाता है, न ही अपने वास्तविक स्वभाव का अनुभव कर पाता है।

प्र.३) अपने वास्तविक स्वभाव के बारे में इतने सोच-विचार की क्या आवश्यकता है? अन्य लोग तो ऐसा नहीं करते। फिर भी उनका जीवन आराम से कट ही जाता है?

उ.) इस तरह के सोच-विचार की आशा हम किसी पशु से तो करते नहीं, क्योंकि उसके पास वृद्धि है ही नहीं! पर "मनुष्य" शब्द का अर्थ ही है "मनन करने वाला।" अब यदि मनुष्य भी अपने ही इस अनुभव पर सोच-विचार नहीं करता, तो वह मनुष्य कहलाने योग्य नहीं रहता। यदि वृद्धि का उपयोग क ऊँची से ऊँची डिग्री प्राप्त कर भी ली और ऊँचे से ऊँचे पद पर नौकरी कर इस उद्देश्य से की, कि अधिक से अधिक धन कमायेंगे, फिर जीवनभर आराम से बढ़िया खाना खायेंगे, आराम से सोयेंगे और पुरुष-स्त्री संग का सुख लूटेंगे तो ये तीन काम तो पशु भी बिना डिग्री के कर ही लेता है ! ऐसे मनुष्य की दशा तो पशु से भी गयी-बीती हो जाती है। जीवन में ये तीन पशुवत् लक्ष्य रखने से मनुष्य के निर्मल स्वभाव में भय, क्रोध, स्वार्थ जैसे पाशविक भावों का प्रवेश हो ही जाता है. जिनका समय-समय पर सामना करना ही पड़ता है। अधिकांश लोग इस पर विचार नहीं करते, और इसलिये तनाव, भविष्य की चिन्ता, क्रोध, शिकायत - इन सब को अपने जीवन के अनिवार्य अंग मान लेते हैं। अपने को पशु से श्रेष्ठ जानकर और मनुष्य होने के नाते बुद्धि का सदुपयोग करके अपने लिये पूर्ण शान्ति, निडरता और आनन्द से भरे भविष्य का निर्माण करना - यह हर एक मनुष्य के लिये सम्भव है, यही उसका सबसे महत्त्वपूर्ण कर्तव्य है और यही उसकी जीवन-यात्रा का लक्ष्य है।

प्र.४) अपने सुख की खोज तो पशु को भी होती है। परन्तु यदि घर-समाज में रहने वाला मनुष्य भी केवल अपने ही आनन्दमय भविष्य के निर्माण में डूबा रहे, तो क्या यह स्वार्थ नहीं है?

उ.) यह एक अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण शंका है। "सुख" और "आनन्द" का अन्तर समझने से इसका समाधान अपने आप स्पष्ट हो जाता है। जब मन का अनुकूल भाव बाहर के किसी व्यक्ति, वस्तु, घटना या परिस्थिति पर निर्भर हो, तो उसे "सुख" कहते हैं। इसमें अपनी प्रसन्नता की प्रधानता रहती है। इसके विपरीत "आनन्द" में बाहर के व्यक्ति, वस्तु, घटना तथा परिस्थिति का आलम्बन नहीं रहता। आनन्द तो मन का आन्तरिक, स्थायी भाव है, जो हमारा स्वरूप ही है। सुख का अनुभव तो कुछ ही देर के लिये होता है। जैसे ही बाहरी आलम्बन या हमारी अपनी आशा में बदलाव होता है, वैसे ही सुख के स्थान पर दुःख, निराशा, उबाहट या क्रोध का अनुभव होता है। आनन्द का अनुभव बाहर के किसी स्रोत पर आधारित नहीं है, इसलिये वह उपरोक्त परिवर्तनों से खण्डित नहीं होता। हर मनुष्य का प्रथम कर्तव्य यह है कि इन सिद्धान्तों पर गहन विचार करके तथा अपने ही अनुभव का आदर करके, इन पर अपनी निष्ठा दृढ़ करे। इस विवेक-बुद्धि को स्थायी बनाने के लिये धर्मग्रन्थों का अध्ययन तथा उनको धारण करने के लिये महापुरुषों का मार्गदर्शन अत्यन्त आवश्यक है। इस विधि से अपनी आनन्द-रूपता में स्थित होकर उसकी तुलना में मनुष्य को सांसारिक विषय-सुख तुच्छ और महत्त्वहीन लगने लगते हैं। फिर भी आवश्यक कर्तव्यों के निर्वाह के लिये ये विषय भगवत्कृपा से उसे अपने आप ही प्राप्त होते रहते हैं। अतः संसार से अपने लिये सुख लेने की आशा का जीवन में कोई स्थान ही नहीं रहता।

तत्पश्चात् उसका जीवन एक देदीप्यमान दीपक की तरह बन जाता है, जिससे उसके आस-पास का अन्धकार अपने आप छैट जाता है। इस दिशा में वह निरन्तर सतर्क रहता है कि उसका हर कर्म लोकसंग्रह से ही प्रेरित हो ('लोकसंग्रह' के लिये कृपया लेख संख्या 1-(७) प्र.१ व VI-(१६) देखें)। वह अत्यन्त सावधानी से अपने हर कर्तव्य का 'भली प्रकार निर्वाह करता है, जिससे उसकी कार्य-शैली सबके लिये एक आदर्श प्रस्तुत करती है। इस प्रकार उसका व्यवहार अन्यों को भी निःस्वार्थ कर्तव्यपालन की ओर प्रेरित करेगा। केवल इतना ही नहीं, जिन लोगों से उसका आत्मीयता का सम्बन्ध हो तथा जो उसे अपना हितैषी मानते हैं, वे चाहे परिवारजन हों, इष्ट-मित्र हों या सहकर्मी, उन सबको वह निरन्तर आत्मशक्ति के स्रोत से जोड़ता रहता है, अर्थात् धर्मग्रन्थों के स्वाध्याय, भगवन्नाम-जप तथा भगवद्भक्ति की ओर प्रेरित करता रहता है, जिससे उनका जीवन भी उत्साहमय हो। इसमें उसका उद्देश्य यही रहता है कि उसके सम्पर्क में आने वाले सभी जनों को अपनी आनन्दरूपता में स्थित होने की शिक्षा मिले, जिससे उसकी तरह वे सब भी अपने लिये आनन्दमय भविष्य का निर्माण कर सकें।

यदि वह ऐसा न करे और केवल अपने ही आनन्द में डूबा रहे, तो यह घोर स्वार्थ ही कहलायेगा। यह पशुवत्-भाव कालान्तर में उसे निश्चित ही कल्याण-पथ से विचलित कर देगा। अतः हर मनुष्य के लिये यह अचूक कसौटी है कि यदि उसके हृदय में वास्तविक भक्ति का दीपक प्रज्वलित है, तो उसका प्रकाश उसके सम्पर्क में आने वाले निज-जनों तक अवश्य पहुँचना चाहिये। यदि ऐसा न हो तो उसे समझ लेना चाहिये कि उसमें भक्ति का दीपक अभी प्रज्वलित नहीं है, अपितु वह अभी चित्र का ही दीपक है, जो अन्धकार में प्रकाश न देकर स्वयं ही उस अन्धकार का भाग बन जाता है।

आध्यात्मिक साधन करके अपने ही कल्याण से सन्तुष्ट रहना तो इन साधनों पर घोर कलंक है तथा गीता की शिक्षा के सर्वथा विरुद्ध है। गीता पढ़ने वाले के लिये तो भगवान् का स्पष्ट आदेश है "सर्वभूतहितेरताः" अर्थात् “सब भूत-प्राणियों के हित में रत रहो" (५/२५, १२/४)। इसी में सबका परम कल्याण निहित है।

1. perfection 2. temporary 3. animalistic 4. favourable 5. external support 6. source 7. interrupt 8. bright 9. strenghthening of all systems in a society