षष्ठ माला - जहाँ प्रेम प्रेम के लिये ही होता है-बिना किये ही होता है
Where love happens just for love's sake - without doing anything
SPRITUALITY


१-जहाँ प्रेम प्रेमके लिये ही होता है-बिना किये ही होता है, किसी चाहकी जहाँ कल्पना भी नहीं है, वहीं निर्मल अहैतुक प्रेम प्रकट होता है।
२-यथार्थ सुन्दर और मधुर वही है, जो सत् है, चेतन है, आनन्दरूप है, नित्य है, निर्मल है, निरतिशय है।
३-मन जब सारे असत्-प्रपंचोंसे हटकर इस 'सुन्दर' के लिये छटपटाता है, तब उसके सामने उस अव्यक्त नित्य सुन्दर, नित्य मधुरका तुरन्त प्रादुर्भाव हो जाता है।
४-वह है सभी जगहपर छिपा हुआ। प्रेमभरी व्याकुलता ही उसे प्रकट करनेमें समर्थ है।
५- भगवान्को प्राप्त करनेका सबसे सरल साधन है- तीव्र व्याकुलता। उसके लिये हमारे प्राण जितना ही अधिक करुण-क्रन्दन करेंगे, उतना ही वह हमारे समीप आयेगा।
६-हमारा काम है, एकमात्र कर्तव्य है-व्याकुल हृदयसे नित्य उनका स्मरण करना, उन्हें पुकारना।
७- भगवान् सर्वसमर्थ होते हुए भी व्याकुल हृदयकी करुण पुकार सहनेमें असमर्थ हो जाते हैं और बाध्य होकर उन्हें प्रकट होना ही पड़ता है। भूमितलमें भगवान्के अवतारका यही प्रधान कारण है।
८-प्रायश्चित्त, तप, दान, व्रत आदि जितने भी पापनाशक साधन हैं - श्रीकृष्णका स्मरण सबसे श्रेष्ठ है। श्रीहरिके एक बारके स्मरणमात्रसे ही सारे पाप-ताप, सारी नरक-यन्त्रणाएँ निर्मूल ही हो जाती हैं।
८-कर्मणा मनसा वाचा यः कृतः पापसंचयः । सोऽप्यशेषः क्षयं याति स्मृत्वा कृष्णाङ्घ्रिपंकजम् ॥
'कर्म, मन और वाणीसे किये हुए समस्त पापोंका संचय श्रीकृष्ण- चरण-कमलोंका स्मरण करते ही अशेष रूपसे क्षय हो जाता है।
१०-कलिकालकुसर्पस्य तीक्ष्णदंष्ट्रस्य यद् भयम् । गोविन्दनामदावेन दग्धो यास्यति भस्मताम् ॥
'कलिकालरूपी तीखी दाढ़ोंवाले कराल सर्पका कुछ भी भय मत करो। गोविन्दनामरूपी दावानलसे दग्ध होकर वह राखका ढेर हो जायगा।'
११-जगत्में अध्ययन और उपदेश करना सहज है। बड़ा कठिन है भागवत-जीवन बनाना।
१२-चुपचाप भगवदनुकूल आचरण करनेसे ही भागवत-जीवन सम्पन्न होता है। अनुकूल आचरणमें उनकी अहैतुकी कृपाका आश्रय करना चाहिये।
१३-वह मनुष्य अपनेको धोखा देता है, जो यह कहता है कि मुझे भगवान्को पुकारने या भगवान्का नाम लेनेके लिये समय नहीं मिलता। भगवान्को पुकारनेके लिये किसी बाहरी आडम्बरकी आवश्यकता नहीं है, किसी भी स्थितिमें किसी भी समय संसारका कोई-सा भी काम करता हुआ मनुष्य भगवान्को पुकार सकता है और भगवान्का नाम ले सकता है।
१४-शरीर उस सूखे पत्तेके समान है, जो हवाके झोंकेसे इधर- उधर उड़ता रहता है और आत्मा उस वृक्षके समान है, जो सदा साक्षीकी भाँति पत्तेका उड़ना देखता है। अतएव आत्मनिष्ठ महात्मा पुरुष प्रारब्धवश संयोग-वियोगके चक्कर में भटकनेवाले शरीरके द्रष्टा रहकर परमानन्दमें निमग्न रहते हैं। न शरीरके रहनेमें उन्हें स्पृहा है और न उसके नष्ट होनेमें उन्हें दुःख है।
१५-यद्यपि ब्रह्मज्ञान बाह्य आचरणोंमें बँधा नहीं है, तथापि अपने समझनेके लिये तो यह सच्ची कसौटी है कि मन विषयोंमें लिप्त होकर उसकी सिद्धि-असिद्धिमें सुखी-दुःखी होता है या नहीं। यदि होता है तो हम जिस ज्ञान (समझ) के आधारपर अपनेको ब्रह्मज्ञानी कहते हैं, वह ज्ञान यथार्थ ब्रह्मज्ञान नहीं है। ब्रह्मज्ञानी वही है जिसकी नित्य अखण्ड ब्रह्मरूपतामें अभिन्न स्थिति है। उसका मन प्रियकी प्राप्तिमें हर्षित और अप्रियकी प्राप्तिमें उद्विग्न नहीं होता।
न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य स्थिरबुद्धिरसंमूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि चाप्रियम् । स्थितः ॥
(गीता ५। २०)
१६-जहाँ धर्मका सहारा लेकर स्वार्थ अपना साम्राज्य विस्तार कर बैठता है, वहाँ निर्दयता, बर्बरता, हिंसा, विनाश और मानवचरित्र तथा मानव सभ्यतापर अमिट कलंक लगाना अवश्यम्भावी है।
१७-धर्मके नामपर होनेवाली स्वार्थकी क्रियासे धर्मकी जितनी हानि होती है, उतनी प्रत्यक्ष अधर्माचरणसे नहीं होती।
१८-महापुरुषोंके प्रति जबतक श्रद्धा-विश्वासका उदय नहीं होता, तबतक भगवत्तत्त्व-प्राप्तिकी कामना और आशा कभी पूरी नहीं हो सकती।
१९-भोगासक्तिपर विजय भगवत्प्रीतिसे ही मिल सकती है। भगवत्प्रेम ही ऐसा अचूक अस्त्र है, जिससे काम, क्रोध, लोभ आदि अज्ञानके सारे परिवारका नाश हो सकता है।
२०-जगत्के समस्त प्राणियोंमें भगवान् सदा-सर्वदा समभावसे विराजित हैं, ऐसा दृढ़ विश्वास रखकर मनुष्य, पशु-पक्षी सभी प्राणियोंमें भगवान्को देखकर मन-ही-मन उन्हें नमस्कार करना चाहिये।
२१-नाटकमें यदि हमारे पिता या हमारे कोई प्रिय मित्र राक्षस, भूत या सिंह-बाघके वेषमें आते हैं, तो उन्हें पहचान लेनेपर हम जैसे उनसे न तो डरते हैं और न द्वेष करते हैं ऐसे ही भगवान्को जब समस्त रूपोंमें हम पहचान लेते हैं, तब किसी रूपसे न हमें द्वेष रहता है, न भय और न घृणा ही।
२२-सुख-दुःखादि द्वन्द्व अन्तःकरणके विकार हैं; जबतक प्रकृतिके साथ आत्माका कल्पित सम्बन्ध रहता है, तबतक ही ये आत्मामें दिखायी देते हैं। स्वरूपतः आत्मामें सुख-दुःखादि हैं ही नहीं।
२३-यदि हृदयमें निर्मल प्रेम नहीं है तो समझना चाहिये कि अभी सच्ची साधुताका विकास नहीं; क्योंकि जहाँ प्रेम नहीं होता वहाँ गंदा स्वार्थ रहता है और जहाँ स्वार्थ है, वहाँ न है त्याग, न है ऊँची साधना और न है विषयासक्तिका अभाव। प्रेमहीन मनुष्यका जीवन घोर विषयी जीवन है, वह सर्वथा मरुभूमिके सदृश शुष्क और उत्तप्त है।
२४-यदि हृदयमें निर्मल प्रेम है तो समझना चाहिये कि सच्चा साधुपन आ गया। प्रेमकी भित्ति है-त्याग। जहाँ त्याग है, वहीं पवित्रता है, उच्च साधना है और निश्चल वैराग्य है। ऐसा पुरुष चाहे विषयी और मूढ़ माना जाता हो या जगत्में सबके द्वारा उपेक्षित हो; परन्तु वह है वस्तुतः परम श्रद्धेय; क्योंकि उसके द्वारा जगत्में विशुद्ध मैत्रीभावनाका स्वाभाविक विस्तार होता है।
२५-जो पुरुष भगवदीय साधनामें जितने ही ऊँचे होते हैं, दैवी गौरवसे जितने ही गौरवान्वित होते हैं, वे अपने हृदयमें उतनी ही अधिक विनय और दैन्यकी सम्पत्ति रखते हैं। ऐसे पुरुषोंका हृदय मान- अभिमानसे सर्वथा शून्य होता है।
२६-ऊँचे-से-ऊँचा आसन उसीको मिलता है, जो सब समय अपनेको सबसे नीचा रखना चाहता है।
२७-वह शान्ति व्यर्थ है, जिसमें भगवान्पर सरल निर्भरता न हो; वह साधना निकृष्ट है, जो अपने अंदर ऊँचेपनका अभिमान पैदा कर दे; और वह भक्ति विष है, जो भगवान्की गद्दीपर बैठनेके लिये मनमें लालच पैदा कर दे।
२८-जितने भी पार्थिव सुख हैं, सभी अशुद्ध और अकल्याणकारी हैं; क्योंकि उनकी उत्पत्ति ही अशुद्ध, अनित्य और दुःखदायी भोगोंसे होती है। सच्चा सुख वही है, जो सत्यस्वरूप भगवान्की स्मृतिसे मिलता है। २९-सच्चे परतन्त्र और गुलाम वही हैं, जो इन्द्रिय और मनकी दासतामें जकड़े हैं-जो इन्द्रियोंकी तृप्ति और मनकी अभिलाषा पूरी करनेमें ही जुटे हुए हैं। मन-इन्द्रियोंपर जिसका प्रभुत्व है, जो इनके इच्छानुसार नहीं चलता, बल्कि इन्हें अपने इच्छानुसार चलाता है, सच्चा स्वतन्त्र और स्वामी तो वही है।
३०-भगवान् यदि कभी दण्ड दें तो भी उनका उपकार ही मानो, क्योंकि वे जो कुछ भी देते हैं, सब हमारे कल्याणके लिये ही देते हैं। माँकी मारमें भी प्यार भरा रहता है।
३१-मनुष्य यदि उस कल्याणमय प्रभुके असाधारण दानकी ओर गहराईसे देख पाता है तो उसे यह प्रत्यक्ष हो जाता है कि प्रभुका छोटे- से-छोटा और अमंगलमय दीखनेवाला दान भी महान् मंगलसे भरा है।
३२-भगवान्की कृपावृष्टि सीधी उन्हींपर होती है, जो अपनी ओरसे कोई माँग रखकर उसमें बाधा नहीं देते।
३३-जो बीत गया है, उसकी चिन्ता करना व्यर्थ है, इसी प्रकार भविष्यके लिये भी चिन्ता करनेमें कोई लाभ नहीं। वर्तमान तुम्हारे हाथमें है, इसे सुधारो। जिसका वर्तमान सुधर गया, उसका भविष्य
आप ही सुधर जायगा।
३४-सच्चा पश्चात्ताप वही है, जो फिर वैसा कर्म न होने दे। वह पश्चात्ताप व्यर्थ है, जिससे कुकर्मका प्रवाह रुके नहीं।
३५-संसारमें सभी कुछ परिवर्तनशील और क्षणभंगुर है। मानो परिवर्तन और क्षण-विनाशकी अनवरत धारा बह रही है। इस अनित्य परिवर्तनशील और क्षणविनाशी जगत्के छिपे एक नित्य अपरिवर्तनशील परम वस्तुकी सत्ता है। इस देश-काल-वस्तु-परिच्छिन्न खण्ड-खण्ड विविध ज्ञानराशिके पीछे एक अखण्ड देश-काल-वस्तु-परिच्छेदरहित नित्य अभेदज्ञान वर्तमान है। बस, वह नित्य प्रकाशरूप ज्ञान ही अविनाशी सत्य है और वही इस समस्त जगत्-प्रपंचका नित्य अधिष्ठान है। वह सब समय सबमें समान भावसे अनुस्यूत है। जगत्के समस्त जीव, संसारके समस्त पदार्थ उसी नित्य सत्य परम वस्तुमें परिकल्पित हैं। समस्त विचित्र विभिन्नताएँ उस एक नित्य चिन्मय सत्ताकी ही प्रकाश-किरणें हैं।