जहाँ इन्द्रियरूपी झरोखे से विषयरूपी बयार आयी कि ज्ञानरूपी दीपकको बुझा देगी। इन झरोखोंको बंद रखे।
Where the wind of the senses comes from the window of senses that it will extinguish the lamp of knowledge. Keep these windows closed.
SPRITUALITY


६६-जहाँ इन्द्रियरूपी झरोखे से विषयरूपी बयार आयी कि ज्ञानरूपी दीपकको बुझा देगी। इन झरोखोंको बंद रखे। इन्हें खोले रखनेमें खतरा यही है कि जहाँ जोरों का झोंका आया कि फिर अँधेरा हो जायगा और गढ़ेमें गिरना पड़ेगा। जीते हुए मर जाय, वही जीवन्मुक्त है। संसारकी ओरसे मर जाय, जीते ही मर जाय, जीते ही जबतक मरा नहीं जाता, तबतक जीवनका वास्तविक रस नहीं मिलता। धोखेसे भी यदि श्यामके सिवा कुछ निकले तो रसना को कठोर दण्ड दें। जानकी-जीवनके बिना जीवन जल जाय।
जरि जाउ सो जीवन जानकी नाथ,
जियै जगमें तुमरो बिन है।
जरउ सो संपति सदन सुखु सुहृद मातु पितु भाइ।
सनमुख होत जो राम पद करै न सहस सहाइ ॥
वह कान साँपका बिल है जिससे भगवान्का गुण और यश न सुना जाय। जीभ मेढककी जीभ है, यदि उसने हरिका गुणानुवाद नहीं गाया।
जिन्ह हरि कथा सुनी नहिं काना।
श्रवन रंध्र अहिभवन समाना ।।
नयनन्हि संत दरस नहिं देखा।
लोचन मोरपंख कर लेखा ॥
जिन्ह हरिभगति हृदयँ नहिं आनी।
जीवत सव समान तेइ प्रानी ॥
जो नहिं करइ राम गुन गाना।
जीह सो दादुर जीह समाना ॥
कुलिस कठोर निठुर सोइ छाती।
सुनि हरिचरित न जो हरषाती ॥
६७-वह संपत्ति जल जाय, जो महाविपत्ति- नरकाग्निमें डालनेवाली है। विपत्तिके धाममें पहुँचनेवाली सवारीसे क्या लाभ इसलिये सावधानीसे सब इन्द्रियोंके द्वारको बंद कर ले। जिसके अंदर नरकाग्नि जल रही हो, जहाँ ज्वालामुखी भभक रही हो, वहाँ कौन रहेगा? सीताजीने भगवान् रामचन्द्रजीसे कहा था- 'आपके बिना यह घर यमपुरीके समान है, श्मशानके समान है।' ये विषय भगवान्के बिना किस कामके ? मनमें दृढ़ता रखे कि हमें साधन-पथमें अग्रसर होना ही है। लक्ष्यको प्राप्त करना ही है। संसारकी ओरसे मोड़े बिना इन्द्रियाँ भगवान्में नहीं लगतीं। यह भी चले, वह भी चले-दोनों नहीं हो सकता। आगे चलकर दोनों एक हो जायँ, ऐसा हो सकता है। पर जबतक वैसा हो नहीं जाता, सावधानी रखे। इन्द्रियोंका दासत्व और विषयोंकी आसक्ति ही सारे झगड़ेकी जड़ है, इसलिये लक्ष्यकी ओर बढ़नेवाला यह अपना मन्त्र बना ले - 'विषयान् विषवत्त्यज'।
निर्भरता
६८-साधन मुक्तिके लिये होता है; परंतु एक ऐसा भी साधन है जो स्वरूप और फल दोनोंसे परतन्त्रतामूलक है। वहाँ साधनका श्रीगणेश ही परतन्त्रताको लेकर होता है, परतन्त्रताका ही सम्बल होता है और फलरूपमें भी परतन्त्रता ही मिलती है साधनावस्थामें भी परतन्त्रता और सिद्धावस्थामें भी परतन्त्रता। यह है प्रपत्तियोग इसमें दो प्रकारके भाव होते हैं। पहले प्रकारका साधक अपने-आपको भगवान्की शरणमें डालता है और दूसरे प्रकारका साधक शरणमें ले लेनेके लिये भी भगवान्पर आश्रित रहता है। वह एकमात्र भगवान्पर निर्भर करता है। पहलेमें शरण हो जायें-इतने कालके लिये पुरुषार्थकी आवश्यकता है, और दूसरेमें पुरुषार्थका सर्वथा अभाव है। बंदरीका बच्चा माँक पीछे-पीछे चलता है और कहीं जाना होता है तो उछलकर माँकी छातीमें चिपक जाता है, माँ भागती है, वह स्वयं बच्चेको पकड़ती नहीं। बच्चा जब उसके हृदयमें आ छिपता है, तब उसे लिये भागती फिरती है। परंतु बिल्लीका बच्चा स्वयं कुछ भी नहीं करता - जहाँ माँ ले जाना चाहती है, वहीं ले जाती है। निर्भरता है दोनोंमें; परंतु पहलेमें थोड़ा-बहुत पुरुषार्थका अभिमान है, दूसरेमें पुरुषार्थका सर्वथा अभाव है। इस निर्भरतामें सबसे बढ़कर सुखकी बात यह है कि प्रारम्भसे ही मनमें अपने भगवान्का साथ रहता है। क्योंकि बिना स्मृतिके निर्भरता किसपर की जाय ?
६९-निर्भरताकी प्रमाद और आलस्यमें गणना न कर लें। ऊपरसे निर्भरता और अकर्मण्यता एक-सी मालूम होती है-ठीक जैसे छोटे बालकका अज्ञान और बहुत ऊँचे उठे हुए महापुरुषका बालक-सा बर्ताव। बच्चेकी सारी बातें अज्ञानमें होती हैं और वहाँ भक्तमें सब कुछ ज्ञानमें है। निर्भरताका साधन सबके लिये नहीं है। यह अजगरी वृत्ति है। चातकी वृत्ति भी ऐसी ही है। क्या करना चाहिये, क्यों करना चाहिये, क्या नहीं करना चाहिये- यह वह कुछ नहीं जानता। सब-का-सब उधरसे ही होता है, इधरसे नहीं। इधरसे बस, एक ही काम है-सब प्रकारसे भगवान्पर निर्भर हो जाना-
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं पर्युपासते । वहाम्यहम् ॥
निर्भर होकर बस, वह एक ही काम करता है, वह है प्रभुका अखण्ड चिन्तन। क्या, क्यों, कब-इन सब बातोंकी स्मृति करनेवाला चित्त रह ही नहीं जाता। चित्त एकमात्र हरिमें रमता रहता है। जहाँतक निर्भरता नहीं होती, वहींतक अकर्मण्यता रहती है। पापसे छूटना, अमुक कार्य करना, अमुक कार्य न करना- इन सब बातोंकी भी उसे परवा नहीं होती। छोटा शिशु यह नहीं जानता कि यह साँप है अथवा मखमलकी कोई चीज, आग है या चमकीली और कोई वस्तु। परंतु उसकी रक्षाका पूरा-पूरा भार मातापर रहता है; क्योंकि वह माँपर निर्भर है। इसलिये जिस कर्मसे बालककी हानि हो सकती है, वह ऐसे प्रत्येक कर्मसे उसे बचाती है। माँ इस बातका बराबर ध्यान रखती है कि इसे किसी प्रकार कष्ट न हो, कोई दुःख न हो। उसी प्रकार यदि हम एकान्त-भावसे भगवान्पर निर्भर हो जायँ तो स्वयं भगवान् ही अपने ऊपर हमारे समस्त योगक्षेमका भार लिये रहते हैं।
७०-भक्तके लिये तो लौकिक या पारमार्थिक किसी प्रकारके योगक्षेमकी अपेक्षा रही ही नहीं। भगवान्ने 'योगक्षेमं वहाम्यहम्' अत्यन्त रहस्यपूर्ण बात कही है। जिसे अपने योगक्षेमकी चिन्ता है वह भक्त कैसा ? केवलमात्र भगवान्पर आश्रय रखकर पूरे विश्वासके साथ जो भगवान्की सकाम भक्ति होती है, वह भी स्तुत्य है। उसकी भी पूर्ति भगवान् कर देते हैं, परंतु जो भगवान्पर सर्वथा निर्भर है, जिसका एकमात्र लक्ष्य प्रभु या प्रभु-प्रेम है, जब प्रभुके सिवा स्पृहणीय वस्तु कोई रही नहीं; तब फिर लौकिक या पारमार्थिक योगक्षेमकी चिंता रहेगी ही क्यों ? अनन्य साधन इसीका नाम है। इसमें भगवान्के सिवा अन्य कोई वस्तु पानेकी रही ही नहीं। अनन्य साधनमें भगवान्के सिवा न कोई उपाय है न पानेकी चीज ही। उसके लिये यह प्रश्न उपस्थित होता ही नहीं कि उसे क्या चाहिये और उसकी पूर्ति भगवान् कैसे करेंगे ? वह तो साधन और साध्य दोनोंमें भगवान्को ही समझता है।
७१-वास्तवमें निर्भरताके साधकको किसी वस्तुकी आवश्यकता रहती ही नहीं। यदि उसे आवश्यकताका ध्यान है तो उसका मन अनन्य साधनमें प्रवृत्त नहीं हुआ। भगवान्के सिवा अन्य किसी भी वस्तुकी इच्छा न उठना, किसी आवश्यकताका अनुभव न होना अनन्य साधन कहलाता है। जब अन्य वस्तुकी चाह ही नहीं रही, तब अन्य वस्तुके लिये भगवान्को क्यों चाहेंगे ? अन्य किसी वस्तुका स्मरण ही क्यों आवेगा?