पंचम माला - तुम पिछले अनन्त जन्मोंमें न मालूम कितने माता-पिताओंकी स्नेहभरी गोदमें खेले हो.....
You have played in the loving lap of who knows how many parents in your countless past lives...
SPRITUALITY


पंचम माला
तुम पिछले अनन्त जन्मोंमें न मालूम कितने माता-पिताओंकी स्नेहभरी गोदमें खेले हो.....
१-तुम पिछले अनन्त जन्मोंमें न मालूम कितने माता-पिताओंकी स्नेहभरी गोदमें खेले हो, कितनी पतिप्राणा प्रेमिकाओंके प्रेमरसमें डूबे हो, कितने पुत्र-पौत्रोंको वात्सल्यभावसे हृदयमें धारण कर चुके हो और कितने मित्र-सुहृदोंके स्नेहसे सुखी हो चुके हो, क्या आज भी उन लोगोंके साथ तुम अपने आत्माका कोई सम्बन्ध मानते हो ? असलमें यहाँके सभी सम्बन्ध आरोपित हैं। एक सरायमें यात्रियोंका दल इकट्ठा हो गया है। समयपर अपने-अपने रास्ते चला जायगा।
२-यहाँका सम्बन्ध बालूकी भीतकी तरह अस्थिर है। इस सम्बन्धमें वास्तविक आत्मीयता नहीं है। यह सम्बन्ध है रूप-रसादि इन्द्रिय-विषयोंको लेकर- स्वार्थ, अभिमान और अज्ञानको लेकर। प्रेममय, प्रकाशमय सनातन पुण्यधाममें इस सम्बन्धकी कोई गणना ही नहीं है।
३-यहाँके प्रिय सम्बन्धी स्त्री, स्वामी, पुत्र, कन्या आदि वस्तुतः तुम्हारे आत्मीय नहीं हैं। यदि तुम सँभालकर बरतो तो वे हैं तुम्हें आध्यात्मिक जगत्तक पहुँचानेमें और विशुद्ध प्रेमप्राप्तिके अधिकारी बननेमें सहायक और अवलम्बनरूप।
४- यह प्रपंच आत्माकी विलासभूमि नहीं है, यह है आत्मनियन्त्रण, आत्मशुद्धि और आत्मज्ञानका विद्यालय।
५-जगत्में कौन साधु है और कौन असाधु, कौन भोगी है और कौन त्यागी, कौन महान् है और कौन क्षुद्र, कौन पण्डित है और कौन मूर्ख, कौन बुद्धिमान् है और कौन अबोध, कौन धनी है और कौन दरिद्र-इसका पूरा पता लगाना बड़ा कठिन है। न मालूम किस वेषमें कैसी-कैसी चेष्टाएँ चल रही हैं।
६-जगत्की लीलामयकी विचित्र लीला मानकर सुखी होओ और यह निश्चय करो कि जो इस सारे जगत्में सदा अनुस्यूत है, जो इसका एकमात्र आधार है, जो इसके पहले भी था और पीछे भी रहेगा, जो इसके अन्दर भी है और बाहर-बहुत परे भी, जो अनादि है, अनन्त है, वही असलमें लीलाके रूपमें भी प्रकट हो रहा है। उसे पहचान लेनेपर फिर साधु-असाधु और अपने-परायेको अलग जाननेकी आवश्यकता नहीं रहेगी।
७-परोपकारकी न दूकान खोलो, न उसपर अभिमान करो। मनुष्य जाता है परोपकार करनेका व्रत लेकर और खोजने लगता है आत्मप्रतिष्ठा, आत्मपूजा और आत्मसम्मान। यह परोपकार नहीं, विडम्बनामात्र है छलमात्र है।
८-उपदेश और ज्ञानके प्रचारका ठेका भी मत लो-पता नहीं, व्यक्तित्वकी पूजाकी छिपी लालसा ही इसमें कारण हो।
९-भगवान्का स्मरण करो; उनके सामने कातरभावसे रोओ, प्रार्थना करो - 'भगवन् ! मैंने हजारों अपराध किये हैं और अब भी कर ही रहा हूँ। मधुसूदन ! मुझे अपना खरीदा हुआ गुलाम समझकर मेरे अपराधोंको क्षमा करो। प्रभो ! मुझे पवित्र बनाकर अपने परमधामकी राहपर ले आना तुम्हारी कृपाका ही काम है। मैं तो डूबा जा रहा हूँ अघ-सागरमें, भटक रहा हूँ भयानक भवारण्यमें! बचाओ- मेरे स्वामी! बचाओ !'
१०-अभिमान छोड़कर जो सच्ची प्रार्थना करता है, उसकी प्रार्थना भगवान् उसी क्षण सुनते हैं। पर मनुष्य प्रार्थनाके समय भी दम्भ करता है। वह अपने अपराधों और दोषोंके लिये कभी दुःखी होता ही नहीं, उन्हें देखता ही नहीं, फिर कपटभरी प्रार्थनापर भगवान् भला कैसे रीझें।
११-भगवान्का नाम महान् महिमामय है। नाम और नामीमें वस्तुतः कुछ भी भेद नहीं है।
१२-
नामचिन्तामणिः कृष्णश्चैतन्यरसविग्रहः ।
पूर्णः शुद्धो नित्यमुक्तोऽभिन्नात्मा नामनामिनोः ॥
'नामचिन्तामणि ही श्रीकृष्ण हैं; वह चैतन्यरसविग्रह, पूर्ण, पवित्र और नित्यमुक्त है। नाम और नामी दोनों अभिन्न हैं।'
१३-जो मनुष्य सचमुच भगवान्के नामका आश्रय ले लेता है, वही भाग्यवान् है, वही सुखी है और वही सच्चा साधक है।
१४-जिसकी जीभ और चित्तवृत्ति भगवन्नाममें लगी है, वही साधु है, उसका जीवन धन्य है और उसका सत्संग सभीको वांछनीय है।
१५-जिसकी जिह्वा निरन्तर पतितपावन हरिनामकी रट लगाती रहती है, वह चाण्डाल होनेपर भी सबसे श्रेष्ठ है; क्योंकि वही प्रभुका प्यारा है।
१६-भगवान्के नाम-कीर्तनसे केवल पापोंका नाश ही नहीं होता। पापनाशके लिये तो शास्त्रोंने अनेकों प्रायश्चित्त बतलाये हैं।
१७-नामसे सायुज्यमोक्षकी आकांक्षा भी मिट जाती है; क्योंकि उस मोक्षमें प्रियतमके नाम-गुणका कीर्तन कहाँ ?
१८-श्रीहरिदास महाराजने कहा था-
केह बोले नाम हैते होय केह बोले नाम हैते मोक्ष हरिदास कहे नामेर ए दुइ नामेर फले कृष्णपदे प्रेम पापक्षय । लाभ फल हय ॥ नहे। उपजये ॥
नामका फल तो है पंचम पुरुषार्थ- श्रीकृष्णप्रेमकी प्राप्ति। पापनाश और मुक्ति तो नामके आनुषंगिक फलमात्र हैं; जैसे सूर्यके उदय होनेपर प्रकाश होता ही है।
१९-जैसे जगत्के प्रकाशक प्रभाकरके प्रकट होते ही जगत्का सारा अन्धकार नष्ट हो जाता है; वैसे ही नामरूपी सूर्यके उदय होते ही पाप-समूह समूल नष्ट हो जाते हैं। भगवान्का नाम अज्ञान- समुद्रसे तरनेके लिये तरणिके समान है। ऐसे जगन्मंगलकारी हरिनामकी
जय हो ! 'जयति जगन्मंगलहरेर्नाम।'
२०-धर्म क्या है और अधर्म क्या, पुण्य क्या है और पाप क्या, नित्य क्या है और अनित्य क्या, सत् क्या है और असत् क्या, पवित्र क्या है और अपवित्र क्या, सुख क्या है और दुःख क्या-जब पूरा विश्लेषण करके बुद्धि इनके यथार्थ स्वरूपको प्रत्यक्ष करा दे, इनका सच्चा अनुभव करा दे, तब समझना चाहिये कि विवेक जगा है।
२१-जब मनुष्य यह जान लेता है कि भगवान् ही एकमात्र आनन्दस्वरूप हैं, उनकी प्राप्ति ही जीवनका परम और चरम ध्येय है, तभी विवेककी जागृति समझनी चाहिये।
२२-विवेकका पूर्ण उदय होते ही वैराग्य आता है। जब क्षणभंगुर अनित्य विषयोंसे चित्त हट जाता है, दुःखयोनि इन्द्रियसुखोंके प्रति विरक्ति आ जाती है, धरतीके धन-माल मल-से मालूम होने लगते हैं, घर-द्वार धर्मशाला-से लगते हैं, परिवार-कुटुम्ब प्याऊपर इकट्ठे होनेवाले बटोही दीखते हैं, मौज-शौकसे मन परे भागता है, यश- कीर्तिकी चाहसे कोई भी काम नहीं रहता, ऐश्वर्य-अधिकार-प्रभुत्व आदिकी बातें कानोंको कभी सुहाती ही नहीं, मानकी मनसा मर जाती है, परचर्चा और परनिन्दा सुननेमें बड़ा क्लेश होता है, मान-अपमान और स्तुति-निन्दाका भय भाग जाता है, न किसीकी चाह होती है, न परवा, न अपेक्षा होती है न उपेक्षा, न कोई शत्रु होता है न मित्र, संतोष- शान्तिका साम्राज्य छा जाता है, दिन-रात केवल भगवत्स्मरण और भगवद्गुणगानकी ही इच्छा और चेष्टा बढ़ती रहती है, तभी समझना चाहिये कि वैराग्यदेवका शुभागमन हुआ है।
२३-मनुष्य सुख चाहता है, पर जानता नहीं सुख क्या है। जिसको वह सुख कहता है, वह वस्तुतः दुःखका ही प्रकार-भेदमात्र है। या यों कहना चाहिये कि वह दुःखका अग्रदूत है।
२४-सुख आते ही पुकारकर कहता है कि 'देखो, दुःख अपने पूरे दलको लेकर मेरे पीछे ही आ रहा है। इसीसे जो सुख खोजता है, उसे दुःख मिलता है और जो सुखके सिरपर लात मारता है, दुःख स्वयं दुःखी होकर उसके समीपसे भाग जाता है।
२५-विषय-सुखकी चाह ही दुःखका आवाहन है। और सुखकी अनिच्छा ही दुःखका दम निकाल देती है।
२६-सुखकी वासना ही बन्धनका प्रधान कारण है। गरीबीमें जब विषय-सुखकी वासना सीमित रहती है, तब उतना ही बन्धन भी कम होता है।